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“न्यायपालिका पर वर्तमान सरकार का कोई दबाव नहीं”-मीनाक्षी लेखी

भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है, तभी तो सत्ता पर काबिज राजनीतिक दलों के नुमाइंदे विश्वपटल पर चीख-चीखकर भारत के लोकतंत्र की खूबसूरती को बयान कर रहे होते हैं। बीते कुछ वर्षों में कई बुद्धिजीवियों ने ‘लोकतंत्र खतरे में है’ वाले नारे को जमकर भुनाया है। जब लोकतंत्र पर ही खतरा मंडराने लग जाए तब वाकई में प्रजातंत्र के हर एक स्तंभों पर विचार करने और समझने की ज़रूरत आ खड़ी होती है।

न्यूज़ चैनलों पर डिबेट्स के दौरान नेताओं के चीखने और चिल्लाने की आवाज़ों से इतर Youth Ki Awaaz सम्मिट 2018 के दूसरे दिन #DemocracyAdda पर पक्ष और विपक्ष के नेताओं के बीच लोकतंत्र के तीन स्तंभों-कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया की कार्यशैली पर एक सहज वार्ता हुई। इस दौरान मॉडरेटर की भूमिका में थे ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के प्रेसिडेंट समीर सरन, वहीं चर्चा में बतौर स्पीकर पहुंची थीं भाजपा सांसद मीनाक्षी लेखी, कॉंग्रेस प्रवक्ता जयवीर शेरगिल और समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता घनश्याम तिवारी।

2018 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत ग्लोबल डेमोक्रेसी इंडेक्स में पिछड़ रहा है। भारत को 42वां रैंक मिला है। दुनिया के 167 स्वतंत्र देशों के प्रदर्शन के आधार पर अध्ययन को तैयार किया गया है। ऐसे में लोकतंत्र के तमाम स्तंभों की कार्यशैली पर सवाल खड़ा होना लाज़मी है।

चर्चा की शुरुआत करते हुए समीर सरन कहते हैं कि जब संविधान की रचना हुई थी तब ऐसा लगा था कि लोकतंत्र को सही तौर पर काम करने के लिए शक्ति का विभाजन बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन पिछले कई वर्षों से हम देख रहे हैं कि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच तनाव बने रहते हैं। सत्ता में चाहे जो भी पार्टी रही हो उनकी मंशा यही होती है कि किस तरह से लोकतंत्र की कार्यशैली में दखल देते हुए उनपर नियंत्रण रख सकें। सभी पार्टियों ने लोकतंत्र के एक या दो स्तंभों पर चोट पहुंचाई है।

लोकतंत्र के स्तंभों पर बात करते हुए उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के कम्युनिकेशन अडवाइज़र और जदयू बिहार इकाई के पूर्व चीफ अडवाइज़र घनश्याम तिवारी कहते हैं कि लोग और उनकी आकांक्षाएं ही लोकतंत्र के तीनों स्तंभ की नींव को तैयार करते हैं। समाज की अंतिम पंक्ति पर खड़े लोगों के प्रति लोकतंत्र के स्तंभों के नज़रिये से ही इसकी बानगी समझी जा सकती है। वर्तमान दौर में केवल रसूखदार लोग ही इस राजनीतिक तंत्र का हिस्सा बन रहे हैं। गरीब लोगों की बात करने वाला कोई नहीं है। यहां तक कि हमारे देश का कानून भी उनकी आवाज़ों को सही से बल नहीं दे रहे हैं। ऐसे में न्यायपालिका की कार्यशैली पर कई बड़े सवालिया निशान खड़े होते हैं।

बातचीत की इसी कड़ी में कॉंग्रेस प्रवक्ता जयवीर शेरगिल कहते हैं कि Seperation Of Power ही वह ऑयल है जिससे लोकतंत्र की मशीनरी चलती है और ऐसा तब ही हो पाता है जब राजनेता लोगों के साथ खड़े होते हैं, ना कि उनसे ऊपर। पार्टी की कुछ बारीकियां होती हैं जो एक राजनेता के तौर पर आप पर दबाव बनाते हैं लेकिन ये आपको तय करना है कि किस तरह से उन दबावों को अपने ऊपर हावी ना होने दें। युवाओं को इन स्तंभों को उत्तरदायी बनाना है। सोशल मीडिया से इतर भी वे राजनीति में अपनी दिलचस्पी दिखाएं इसके लिए कोई पहल करनी होगी ताकि यह लोकतंत्र और उनके स्तंभों उत्तरदायी हो सकें।

लोकतंत्र के स्तंभों को लेकर बीजेपी प्रवक्ता मीनाक्षी लेखी का कहना है कि पिछली सरकार के मुकाबले लोकतंत्र के स्तंभों में सब कुछ ठीक ही चल रहा है। सत्ता पर निगरानी रखने के लिए लोकतंत्र के स्तंभों में टकराव होना ज़रूरी है। लोकतंत्र के स्तंभों में आपसी टकराव पैदा किए जाते हैं लेकिन संघर्ष की सतत स्थिति इनके बीच संतुलन बनाए रखती है। हमें यह समझना पड़ेगा कि लोकतांत्रिक प्रकिया वो नहीं है जो हम अखबारों में पढ़ते हैं, बल्कि लोकतंत्र की कार्यशैली कार्यात्मक और सबसे बेहतर संरक्षित है। आज आपातकाल जैसी कोई स्थिति नहीं है।

आज़ादी के बाद से लेकर अब तक लोकतांत्रिक संस्थानों की विवशता पर हुई चर्चा

2014 के लोकसभा चुनावों से पहले जब केन्द्र में कॉंग्रेस की सरकार थी तब भी लोकतांत्रिक संस्थानों पर सरकार के दवाब की बातें सामने आती थीं और अब जब केन्द्र में बीजेपी की सरकार है तब भी ऐसी खबरें सुनने को मिलती हैं। YKA का यह सत्र जब समापन की ओर जा रहा था तब इसी मुद्दे पर यहां आए तमाम नेताओं ने बात की।

इसपर घनश्याम तिवारी का कहना है कि लोकतंत्र के गोल पोस्ट में पीढ़ी दर पीढ़ी परिवर्तन हुए हैं। शासन का एक रूप उभर रहा है जो पहले के दमनकारी मॉडल के सामने चुनौती पेश कर रहा है। अब वर्तमान मॉडल को चुनौती देने की ज़रूरत है।

वहीं भाजपा सांसद मीनाक्षी लेखी का मानना है कि मौजूदा दौर में न्यायपालिका काफी हद तक स्वतंत्र है। मगर हां इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि पूर्व की सरकारों के समय न्यायपालिका पर काफी दबाव रहता था। साल 1973 के केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का ज़िक्र करते हुए मीनाक्षी मौजूदा दौर में न्यायपालिका पर वर्तामान सरकार के दबाव नहीं होने की बात करती हैं।
वे बताती हैं कि पूरे विश्व में हर जगह सरकारें न्यायाधीशों की नियुक्ति करती हैं लेकिन भारत में उनकी नियुक्ति की प्रक्रिया काफी स्वतंत्र है और मौजूदा सरकार इसकी मिसाल पेश करती है। जहां तक रही विधायिका की बात तो बता दें कि भारत में विधायक सिर्फ सदन में ही बैठने का काम नहीं करते बल्कि वे बाहर जाकर लोगों से मिलते भी हैं।

अंत में कॉंग्रेस प्रवक्ता जयवीर शेरगिल कहते हैं कि यदि 1975-77 का दौर एक खराब उदाहरण था, तब 2014 से लेकर 2018 भी खराब उदहारण ही है। हमें गर्व होना चाहिए कि आशंकाओं के बावजूद भारत एक कार्यात्मक लोकतंत्र के रूप में जारी रहा है। बेशक कुछ बुरे निर्णय और कदम थे लेकिन हमने उन्हें सही किया और लोकतंत्र की ओर प्रतिबद्ध रहें। एक ओर जहां कई मामले पेंडिग हैं तो वहीं दूसरी तरफ हमारे पास अदालतें और न्यायाधीशों की कमी है। कई विभागों में कर्मचारियों की किल्लत बड़ी समस्या बनती जा रही है। हमें अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। बलात्कार के मामलों में हमें सज़ा पर ध्यान केन्द्रित करने के बजाए रोकथाम पर बल देने की ज़रूरत है। हमें बुनियादी ढांचे और दृष्टिकोण को ठीक करने की ज़रूरत है

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