राजनीति शब्द का ज़िक्र होते ही हर शख्स के ज़ेहन में देश की सियासत को लेकर कई तरह से सवाल उत्पन्न होने शुरू हो जाते हैं। शुरुआती दौर की बात करें तो देश की राजनीति में युवाओं की बड़ी अहम भूमिका रही है। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर जी को ‘युवा तुर्क’ भी बोला जाता था। वहीं स्वर्गीय करुणानिधि ने 14 साल की उम्र में राजनीति में कदम रखा। हालांकि उनकी राजनीति हिंदी विरोधी थी, इसलिए उत्तर भारत में वो अपना जौहर नहीं दिखा पाए।
उत्तर भारत के सबसे चर्चित नेता लालू प्रसाद यादव ने भी 22 वर्ष की उम्र में राजनीति में कदम रखा। जयप्रकाश नारायण (जेपी) वाले छात्र आंदोलन में लालू जी ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। लालू जी अपने समय के सबसे युवा सांसद में से एक थे। नीतीश कुमार और शरद यादव जैसे कई अन्य नेता भी युवा अवस्था में ही राजनीति में आ गए थे। ये कहना गलत नहीं होगा कि उस दौर में युवा राजनीति में सक्रिय भूमिका अदा करते थे।
बदलते वक्त के साथ राजनीति में अपनी भागीदारी को लेकर युवाओं की सोच भी बदलने लगी है। ‘राजनीति’ एक ऐसा शब्द बन गया है जिससे आज के दौर के युवा नफरत करने लगे हैं। युवाओं को ये कहने में गुरेज़ नहीं होता कि वह राजनीति से दूर रहते हैं। मुझे राजनीति से कोई लेना देना नहीं है। कोई भी सरकार बने हमें क्या पड़ता है। इस तरह के वाक्य प्राय: सुनने को मिलते हैं।
इस दौर में कुछ नेताओं ने बतौर युवा नेता अपनी छवि ज़रूर बनाई, लेकिन वे विशिष्ट परिवार से नाता रखते हैं। सामान्य युवा इससे दूर होता गया। मैं अपनी बात करूं तो जब मैं विद्यालय में था, उस वक्त भी बहुत कम दोस्त राजनीति पर चर्चा करते थे। अखबारों में बस दो पेज- एक मुख्य पृष्ठ और दूसरा खेल जगत, यही पढ़ने का शौक था सभी को। उस वक्त राजनीति में किसी को सुनहरा भविष्य नहीं दिखाई पड़ता था। इंजीनियर, डॉक्टर, सीए और बैंक मैनेजर जैसे क्षेत्रों में ही युवाओं का रुझान होता था। कोई यह सोच भी नहीं पता था कि नेता बनना करियर भी हो सकता है।
बदलते वक्त के साथ समय ने एक बार फिर करवट ली और साल 2014 की लोकसभा चुनाव के साथ ही देश में राजनीति की एक नई पटकथा लिखी जाने लगी। उससे पहले देश में अन्ना हज़ारे और बाबा रामदेव के आंदोलनों ने वोटर्स के अंदर सत्ता परिवर्तन की एक लहर पैदा कर दी थी। तभी तो साल 2014 के लोकसभा चुनाव में फतह हासिल कर नरेंद्र दामोदर दास मोदी ने सत्ता के जादुई दरवाज़े को खोलकर उस राजपथ पर कदम रख दिया जहां पहुंचने की हुंकार तो हर सफल राजनीतिज्ञ भरता है लेकिन मोदी ने उस हुंकार को शपथ ग्रहण में तब्दील कर अपने कद को भाजपा के कमल से भी बड़ा बना दिया।
गौरतलब है कि भ्रष्टाचार, सरकार की गलत नीतियां, बेरोज़गारी, बढ़ती महंगाई और महिला सुरक्षा को लेकर लंबे वक्त से निराशाओं का सामना कर रही जनता ने परिवर्तन के तौर पर नरेन्द्र मोदी को सत्ता पर काबिज़ कराया। युवाओं को ये महसूस होने लगा था कि यदि अभी नहीं जागेंगे तो काफी देर हो जाएगी। ये परिवर्तन की एक ऐसी लहर थी जिसका असर बच्चों से लेकर बड़ों तक में देखने को मिला।
मैनें साल 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान जिस मतदान केन्द्र में वोट डालने गया था, वहां पर मैनें देखा कि एक बूढ़ी औरत के साथ 18 साल का लड़का आया और बोलने लगा कि अबकी बार मोदी सरकार। नियम के विरुद्ध होते हुए भी मानवीय दृष्टिकोण से उस बच्चे को कुछ नहीं कहा गया, केवल उसे शांत रहने के लिए बोला गया।
यह घटनाक्रम इस बात का प्रमाण देती है कि 2014 के दौरान भारतीय राजनीति में एक व्यापक परिवर्तन देखने को मिला था। जोश से लबरेज़ युवा चाय की दुकानों पर चर्चा करने से लेकर सोशल मीडिया तक भी प्रचार-प्रसार से पीछे नहीं हटते थे। इसके लिए मैं माननीय मोदी जी को धन्यवाद देना चाहता हूं जिन्होंने देश के सोए हुए युवाओं को जगा दिया और जगाने के बाद क्या-क्या हो रहा है यह हम सभी अच्छे से जानते हैं।
अब वह दौर आ गया जहां नेता बनना एक करियर हो गया है। हालांकि युवाओं में जो बीमारी थी, वह अभी भी गई नहीं है। युवाओं के अंदर सबसे बड़ी बीमारी यह है कि वह इंतज़ार करना नहीं चाहते। वे चाहते हैं कि रातों-रात विधायक बन जाएं या देश के बहुत बड़े हिस्से पर उनके नाम के कसीदे पढ़े जाने लगें। जब युवाओं ने राजनीति को करियर के रूप में देखना शुरू किया, तब उन्होंने वह शॉर्टकट रास्ता भी निकाल लिया कि किस तरह से अपनी राह आसान बनाई जाए। धर्म आधारित राजनीति करना, सोशल साइट्स पर भड़काऊ पोस्ट्स करना या किसी दल के साथ जुड़कर जाति आधारित राजनीति का हिस्सा बनने जैसी चीजों को युवा तेज़ी से अपना रहे हैं।
इस ट्रेंड में ना शामिल होने वाले युवा चिंतित हैं। क्योंकि युवाओं में भेड़ चाल पनप चुका था, इसलिए यहां भी सीट फुल होने लगी थी। वह तो भला हो कन्हैया भैया के जिन्होंने JNU से बताया कि राजनीति दूसरी तरह से भी की जा सकती है। फिर युवाओं ने भेड़चाल पकड़ा लाल सलाम, साम्यवाद, समाजवाद, दलितों की हक की लड़ाई जैसे शब्दों से फेसबुक को रंगीन कर दिया। हालांकि कन्हैया कुमार की इस टेक्निक को भी बहुत कम लोगों ने अपनाया क्योंकि इसमें खतरा बहुत ज़्यादा है। एक तो आपको बहस करनी पड़ती है और दूसरी बात कि आप सत्ता के खिलाफ हो जाते हैं। पहले वाले टेक्निक के साथ ऐसी कोई मजबूरी नहीं है, उन्हें ना बहस करने की ज़रूरत है ना उन्हें सत्ता का डर है। किसी भी तरह की बहस के लिए उनका नारा बुलंद रहता है।
बीमारी तो पहले से है, मेहनत नहीं करने की बीमारी। जब मेहनत नहीं करनी है तो पढ़ाई कहां से करनी है। बगैर पढ़े बहस तो कर नहीं सकते या कुछ नया सोच नहीं सकते। बस भेड़ चाल चलना है। युवा नेता के लिए फेसबुक के लाइक और कमेंट उनके वोट की तरह होते हैं। जिसको जितना लाइक और कमेंट मिले वह अपने आपको उतना बड़ा नेता मानता है।
अंत में यह कहा जा सकता है कि अधिकतर बेरोज़गार युवा ‘युवा नेता’ बनने के इच्छुक हैं।
प्रत्येक ‘युवा नेता’ को मेरी ओर से उनके सफल करियर की बधाई।