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समाज को अपराधमुक्त बनाने का मतलब ये नहीं कि अपराधियों को मौत की घाट उतार दिया जाए।

अपराध कहीं भी किसी से भी हो सकता है। किसी से मजबूरन हो जाता है, कोई जानबूझकर कर देता है, तो कभी कोई बेगुन्हा भी अपराधी बना दिया जाता है। फ़िर एक सवाल जन्म लेता है?

हमारा यह सभ्य कहा जाने वाला समाज उस अपराधी को किस नज़रिए से देख़ता है? एक इंसान जिससे जाने-अंजाने में कोई अपराध हो जाए तो वह हमारी और आपकी नज़र में एक अपराधी बन जाता है। क़ानून तो अपना काम करता है। सज़ा देना या न देना यह क़ानून का काम है।

लेकिन हम और आप उस इंसान को धृणा की नज़र से देखने लगते हैं। अपने घर, परिवार के लोगों को उस इंसान से दूरी बनाए रखने की सलाह देते हैं। मानो जैसे अब वह कोई इंसान नहीं रहा हो बल्कि खूंख़ार जानवर में परिवर्तित हो गया हो।

वह व्यक्ति क़ानून के द्वारा दी गई सज़ा को तो जैसे-तैसे काट लेता है। लेकिन जब वो जेल की चार दीवारियों से रिहा होकर अपनें समाज से दोबारा जुड़ता है, तो लोग उससे अब अलग अंदाज़ से पेश आतें हैं। धृणा की नज़र से देखते हैं। उसे बार-बार एहसास दिलाते हैं कि तुम एक अपराधी हो, अब तुम हमारे समाज का हिस्सा नहीं रहे।

तब उसको लगता है कि शायद वह एक जेल से निकल कर फ़िर किसी दूसरी जेल में आ गया हो। समाज के तानों और घृणा से उसका दोबारा मुख्य धारा से जुड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है। हम और आप उसको उस छवि से बाहर निकलने ही नहीं देते, जबकि वास्तव में वो इंसान, किए गए अपराध से सीख लेकर सुधरना चाहता है। कभी-कभी हम और आप मिलकर भी एक बड़ा अपराधी पैदा कर देते हैं।

समाज को अपराधमुक्त बनाने का मतलब ये नहीं कि सभी अपराधियों को हमेशा जेल की चार दिवारियों में ही क़ैद रखा जाए, या फ़िर उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाये। एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए बेहद ज़रूरी है कि समाज में हर तरह के लोगों को साथ लेकर चला जाए। अगर कोई ऐसा काम करता है, जो समाज के लोगों को आहत करता हो, तो ज़रूरी है कि आप उस इंसान को सही मार्ग पर लाएं नाकि उससे दूरी बनाए।

देश की जेलों में बंद सैकड़ों, हज़ारों क़ैदी आज भी अपनी दुनियां में वापस आना चाहते हैं, एक साधारण इंसान की तरह ज़िन्दगी जीना चाहते हैं। जाने-अंजाने किये गए अपराध से सबक लेते हुए सुधरना चाहते हैं। अफ़सोस हम और आप उनको अपराधी की छवि से निकलने ही नहीं देते हैं। पुलिस भी हमेशा उनसे अपराधी की ही छवि से ही देखती है। न चाहते हुए भी वो इंसान अपराध की दुनिया में वापस चला जाता है।

मैं अपने शहर की ज़िला कारागार में बंद अनेक क़ैदियों से मिला हूँ, जो अपने अपराध की सज़ा काट रहें है। उनको पछतावा है, दर्द है, अकेला पन हैं, वे ज़िन्दगी फिऱ से शुरू करना चाहते हैं, मुख्यधारा में वापस आना चाहते हैं। हम और आप उनको किस तरह से अपनाते हैं ये एक बड़ा सवाल है। ज़रूरी नहीं की एक अपराधी हमेशा अपराधी की छवि के साथ जीना चाहता है।

हम और आप उसे, उस छवि ले साथ जीने के लिए मजबूर करते हैं, उसे बार-बार अपराधी होने का एहसास दिलाते हैं। हमें समाज से इस विचारधारा को ख़त्म करने पर बल देना चाहिए ।

 

 

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