Site icon Youth Ki Awaaz

“17 करोड़ भारतीय महिलाओं के कुपोषण का कारण है पितृसत्ता”

कुपोषण देश के लिए एक ऐसा अभिशाप है जिसने वैसे तो अपनी चपेट में भारत के पुरुष, महिलाओं और बच्चे सभी को ले रखा है लेकिन, यहां ये बात समझना महत्वपूर्ण है कि भारत में कुपोषण भी लिंग देखकर अपना वार कर रहा है और ऐसा करने के लिए वह अक्सर परंपराओं का चोला पहन लेता है। इस चोले की आड़ में वह जिसको सबसे ज़्यादा अपना शिकार बना रहा है, वह हैं देश की महिलाएं और फिर उन महिलाओं के बच्चे। केवल खान-पान का मामला लगता ये कुपोषण भारत में नारी सशक्तिकरण की परिकल्पना में भी एक बड़ी बाधा के रूप में उभरकर सामने आया है।

शहरों की ओर भागने की प्रवृत्ति तेज़ी से विकसित होने के बावजूद भी देश की सबसे बड़ी आबादी (2011 की जनगणना के हिसाब से लगभग 70 प्रतिशत) ग्रामीण इलाकों में ही निवास करती है। इक्कीसवीं सदी की शुरूआत से अब तक देश में महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में लगातार सुधार तो हो रहा है लेकिन खानपान के स्तर पर सजगता के अभाव में खुद महिलाएं ही जाने-अनजाने पुरानी रीति-रिवाज़ों में बंधी हुई सी लगती हैं।

देश के ज़्यादातर ग्रामीण इलाकों, कस्बों और उनके आस-पास के छोटे शहरों में महिलाएं घर परिवार में खुद को पीछे रखकर बाकी सदस्यों को आगे करने वाली मानसिकता से अभी भी पूरी तरह से आज़ाद नहीं हुई हैं। भोजन के मामलों में वे पहले घर के बाकी सदस्यों को भोजन कराने के बाद जो बचा-खुचा बचता है, उसको खाकर संतुष्ट रहती है। महिलाओं की त्याग की देवी वाली यह छवि परंपराओं में भले ही बहुत अच्छी लगती हो लेकिन इससे देश का बहुत नुकसान हो रहा है क्योंकि यह मामला देश की तरक्की में बाधा डालने वाले सबसे बुनियादी कारणों में से एक साबित हुआ है

आज के समय में यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि किसी भी देश के भविष्य की कुंजी उस देश की महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य पर बहुत ज़्यादा निर्भर करती है। एक कुपोषित महिला की संतान कई तरह की बीमारियों और शारीरिक कमियों की शिकार होती है और ऐसे बच्चों का विकास ठीक से नहीं हो पाता है। बड़े होने पर ये बच्चे देश के मानव संसाधन के मोर्चे पर भी विफल रहते हैं और देश के लिए अच्छे उत्पादक नहीं बन पाते। इस तरह से एक महिला का कुपोषण भविष्य के युवा भारत की कार्यक्षमता को सीधे तौर पर प्रभावित करता है।

देश में ऐसा हो भी रहा है। इंसान के जीवन में दो तरह का स्वास्थ्य महत्वपूर्ण होता है- एक शारीरिक और दूसरा मानसिक और स्वास्थ्य की इन दोनों ही कसौटियों पर हम बुरी तरह से पिछड़े हुए हैं। इन आंकड़ों की तस्दीक ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट से भी की जा सकती है जो 140 देशों में किए गए अध्ययन के आधार पर भारत में कुपोषित बच्चों की स्थिति काफी खराब बताती है। रिपाेर्ट के मुताबिक देश की लगभग एक तिहाई महिलाएं बुरी तरह से कुपोषित हैं और यही इस दुर्गति की मुख्य जड़ है।

यह जानकर हैरानी होती है कि देश में खून की कमी की शिकार महिलाओं की संख्या तो आधे से भी ज़्यादा है। इसका सीधा मतलब है देश में पैदा होने वाला हर तीसरा बच्चा जन्म से ही शारीरिक कमियां लेकर संसार में आ रहा है और गरीबी-कुपोषण की दलदल में फंसकर रह जा रहा है। कुपोषित बच्चों में सही शारीरिक विकास ना होने से कार्यक्षमता नीची रहती है। यानी ये कुपोषण-गरीबी का एक ऐसा दुष्चक्र है, जो भारत का पीछा नहीं छोड़ रहा है।

वहीं, यदि एक महिला के खानपान पर बचपन से ही ध्यान रखा जाए तो बड़े होने पर उनकी संताने भी निरोगी और शारीरिक-मानसिक स्तर पर हष्ट-पुष्ट निकलती हैं। उनमें रोग-प्रतिरोधक क्षमताओं की भी कोई कमी नहीं होती है। यह देश के मानव संसाधन के लिए एक बहुत बड़ी पूंजी तो है ही, इसके साथ ही बीमारियों में लगने वाले पैसे की भी बहुत बड़ी बचत है। सही कार्यकुशल लोग ना मिलने से देश की उत्पादन क्षमता तो प्रभावित होती ही है, तो बीमारियों की चपेट में आने से इलाज पर होने वाला खर्च भी बढ़ता है।

औद्यौगिक संस्था एसोचैम ने इस साल जनवरी में देश की जीडीपी पर कुपोषण के प्रभाव की एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसके अनुसार कुपोषण के कारण भारत की जीडीपी को 4 प्रतिशत का नुकसान झेलना पड़ता है। वहीं, राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 से इस बात का खुलासा होता है कि भारत में करीब 15 करोड़ लोगों को मानसिक स्वास्थ्य दुरुस्त करने की जरूरत है। आज विभिन्न तरह के प्रतिस्पर्धी क्षेत्रों में जूझते हुए हम आसानी से मानसिक बीमारियों के शिकार हो रहे हैं और यह मामला भी सीधे तौर पर सही मानसिक पोषण के अभाव का है।

आज भारत योगियों, साधु सन्यासियों या त्याग की देवी की मूरत वाली महिलाओं का ही देश नहीं रह गया है। ऐसे में यदि समाज महिलाओं के खानपान में रूढ़िवादी परंपराओं से मुक्त नहीं होता तो इस मामले के परिणामों की गंभीरता को समझते हुए यह बीड़ा भी महिलाओं को उठाना होगा। देश के हर हिस्से में महिलाओं के पोषण को लेकर तुरंत चेतने की सख्त ज़रूरत है और इसकी शुरुआत अगर देश के ग्रामीण इलाकों से की जाए तो बहुत ही बेहतर होगा।

यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि एक महिला अपने बच्चे की ना केवल पहली गुरू होती है बल्कि एक माँ में पोषण के प्रति कम जागरूकता उसके बच्चे की खाने-पीने की आदतों में निर्णायक भूमिका भी निभाती है। इस तरह की स्थितियां भारत के बड़े शहरों में कुपोषण के लिए काफी हद तक ज़िम्मेदार साबित हो रही हैं। शहरों में घर के अधिकतर सदस्यों के काम करने से जंक फूड खाने का जो चलन बढ़ा है, वह बच्चों में मोटापे और कुपोषण दोनों का एक साथ कारण है। जी हां, मोटापा भी अपनी तरह का कुपोषण होता है। कई स्वास्थ्य एंजेंसियां इस तरह के मोटापे को देश के अगले स्वास्थ्य संकट के रूप में भी देख रही हैं।

ज़ाहिर है महिलाओं के हाथ में देश को महाशक्ति बनानी वाली एक बहुत बड़ी कुंजी है। खाने-पीने और महिलाओं के स्वास्थ्य के प्रति समाज को भी अपना नज़रिया बदलना होगा। महिलाओं और बच्चों की सेहत पर किया गया खर्च देश के भविष्य पर किया गया एक खरा निवेश ही है, जिसका रिटर्न बहुत सुखद है। इसके लिए ज़रूरी है कि जैसे समाज में शिक्षा को लेकर गंभीरता का जैसा प्रचार-प्रसार है, वैसी ही गंभीरता सही खान-पान और पोषण को लेकर भी हो।

Exit mobile version