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“जगजीत, हर फनकार में मुझे आप ही नज़र आते हैं”

हरदिल अजीज़ जगजीत सिंह,

खत लिखकर आपसे रूबरू हो रहा हूं। काफी दिनों से सोच रहा था कि एक अजीज़ से दिल की बात कहूं। आपकी फनकारी का एक मामूली तलबगार आपको याद करता है। लाइव महफिलों का ज़रिया भी तो हमेशा के लिए रुक गया। अब उन गज़लों में ही खुदा के प्यारे को खोजा करता हूं। पुराने इंटरव्यू को देखकर मन नहीं माना खत लिख रहा हूं।

क्या नहीं बाकी कहने को और ज़िन्दगी गुज़र रही, मौसम के इम्तिहान में ज़िन्दगी साथ सबको नसीब नहीं। आपकी गज़लों को सुनकर भी प्यार की तलब नहीं बेवफा को। जानता हूं कि परमेश्वर के यहां आपको आराम होगा, वहां भी एक महफिल सज़ा करती होगी। यहां इस दुनिया में लोग आपको काफी मिस करते हैं। अकेलापन व उदासी उनके हिस्से आई जिन्हें फनकारों से इश्क था।

जहान की तकलीफ सुने कि सफर के एक मरहले में होकर तन्हाई रह-रहकर दस्तक दे जाती है। एक तकलीफ से गुज़रना ना जानें क्यों एक शाश्वत हकीकत बन सी गयी है। बहुत से मामलों में तन्हा शख्स की ठीक तरह से पहचान भी नहीं हो पाती। आप समझ सकते हैं कि ऐसे लोग उदासी से घोर उदासी में जाने को मजबूर हैं। आपकी दुनिया में जाकर शायद सुकून मिल जाए। मुझे वहां का अंदाज़ा नहीं लेकिन सुना है कि रूहों को आराम मिलता है। खुदा के दरबार में बेसहारों की खातिर एक अर्ज़ी लगा दें। शायद दुनिया की तकलीफों के एवज़ में जन्नत नसीब हो।

“वक्त रहता नहीं कहीं थमकर, आदत भी आदमी सी है।” आदमी की फितरत में आवारगी का होना वक्त से मिली एक पहचान होती है। इंतज़ार की भी एक उम्र हुआ करती है। आवारगी और इंतज़ार दोनों ही हालत में हम कभी-ना-कभी कोशिशों से हारकर रुक जाते हैं। बहुत ज़्यादा इंतज़ार हर किसी से नहीं हो पाता, बन जाएंगे ज़हर पीते-पीते यह अश्क जो वो पीए जा रहे हैं। एक अर्ज़ी खुदा के पास उन मुसाफिरों का सफर आसान होने का लगा दें जिन्होंने पड़ाव को मंज़िल समझा।

अपना ज़िक्र करें, क्या मालूम गज़लजीत अब भी गज़लों में बयान करते हों। गज़लों में तो अब भी रूह ज़िन्दा नज़र पेश रहती है, ख्वाबों को अमर गीतों से सजा दिया करें, होठों को पाकर वो गीत फिर नहीं मरेंगे।

आज, प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है, का ख्याल आता है। लिखा किया करता था, नहीं जानता और उसने बताया भी नहीं कि वे खत थे। बेवजह भी लिख लिया करता था। अक्सर खामोश जवाब के एवज़ में दिल की कह दिया करता था। आपको मालूम है कि वो खामोशी का दूसरा नाम सा बनता चला गया? उस तरफ की खबर उसमें ही तलाश करनी होती थी।

हमारी दुनिया कहने को साथ चल रही थी। फिर सब्र कर लिया कि वो अपनी ज़िन्दगी में खुशहाल होगा। सफर-दहलीज़-उम्र से वो भी रूबरू होगा। सब साथ चल रहा था फिर भी ज़िन्दगियां अपने में अकेली कोई यह कैसे बताता कि वो तन्हा था।

दुनिया में काले-सफेद के अलावा भी रंग सुने थे हमने। बात निकली नहीं, दूर तलक भला कैसे जाती? खत लिखा क्योंकि लिखकर आप उनके नज़दीक हो सकते हो जो दूर हुआ करता है। सफर की खातिर चलना हमने सीख लिया था। इधर की दुनिया एक ख्वाहिशों की दुनिया है। ख्वाहिशें की एक उम्र हुआ करती है, हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी भी कि उनको पूरा नहीं होना है।

आप जिस दुनिया में चले गए वहां से कोई संदेश नहीं आता, तकलीफ भी रहती है कि चिट्ठी ना कोई संदेश। आपका शहर अब काफी बदल चुका है। क्या बताऊं क्या ना समझ नहीं पा रहा। एक अजीज़ की कमी एक शाश्वत सच की तरह लिपटी हुई है।

महफिल में होकर दीवाने उस आवाज़ को ढूंढा करते हैं, जहां में अबके दिन और रातों को वक्त को जीना है। कभी यह गुज़र जाता कभी इंतज़ार बन जाता। कभी उम्र हो जाता, ज़िन्दगी के सफर में कभी महफिल में तो कभी तन्हा जीना है। महफिलें जो आपने कभी सुरों से सजाईं अब कोई और भी वहां आता है।

आपकी कमी हमेशा रहेगी। गज़ल की ख्वाहिश आपकी ख्वाहिश बन चुकी है। ज़िन्दगी की समझ कि वो जो था, अपना था ने हमें साथ रखा है। आपके दीवानों को हर गज़लकार में आपका चेहरा नज़र आता है, कहीं-कहीं से हर चेहरा तुम जैसा लगता है, तुमको भूल ना पाएंगे हमें ऐसा लगता है। कितना कुछ कहना बाकी रहा और ज़िन्दगी गुज़र रही।

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