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कविता: “हर रक्त की बूंद से क्रान्ति की फसल उगाऊंगा”

मैं सूरज की किरणों के नीचे स्वेदनीर को पीता हूं,

मैं इस कृषक देश में रोज़-रोज़, मर-मरकर जीता हूं,

अपने ही अधिकारों के लिए दर-दर भटकता हूं,

मेरे बच्चे अनाथ होते हैं, मैं जब फंदे पर लटकता हूं।

 

तुम हो अगर दोगले तो सत्ता का गुणगान करो,

मेरा अनाज खाकर तुम मेरा ही अपमान करो।

 

हर रक्त की बूंद से क्रान्ति की फसल उगाऊंगा,

स्वाभिमान की खातिर दिल्ली में भी हल चलाऊंगा।

 

हे स्मृति हीनों! विश्व इतिहास के पृष्ठों में तुम झांकों,

मेरी हंसिया-कुदाल की शक्ति को कमतर ना आंकों।

 

हे अन्नदाता! रोज़ लटकते हो, अब हत्यारों को अपनी शक्ति दिखलाओ तुम,

मौन ना लाठियां खाओ, शब्दों के बाण चलाओ तुम,

सत्ताधारियों को फावड़े की शक्ति से परिचित करवाओ।

 

तिलक हटा मृर्दा कणों को माथे पर लगाओ ज़रा,

जय किसान जय किसान का नारा तुम लगाओ ज़रा।

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