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#MeToo: “उठ अभी कहीं और चलना है तुझे”

उठ अभी तुझे कहीं और

चलना है,

अपने जीवन के अर्थ को समझना है।

 

ये दुनिया तेरा भी मंच है,

इसपर तुझे भी खेलना है,

उठ तुझे अभी कहीं और चलना है।

 

हथेलियां जो मेहंदी रचा रहीं,

उन हथेलियों में एक मशाल भी जलानी है,

जिन कलाइयों पर खनक रही हैं चुडियां,

उन पर कभी ना बंधने दे तू बेड़ियां।

 

जिन पैरों में छनक रही है पायल,

उन पैरों से कांटों भरी पगडंडियों पर चलकर,

मंज़िलों को पाना है तुझे,

उठ अभी कहीं और चलना है तुझे।

 

इस वक्त के इतिहास से परे,

अभी तुझे एक नया इतिहास गढ़ना है।

उठ तुझे अभी कहीं और चलना है।

 

जो मिट गई थी पहचान तेरी

बाबुल के आंगन तले,

अपने उस वजूद की तलाश में

फिर निकलना है तुझे,

उठ अभी कहीं और चलना है तुझे।

 

जो बेड़ियां हैं बंध गईं,

जो पहरे कहीं पर लग गए,

उन बेडियों  को तोड़कर,

उन पहरों की चिताएं जलाकर,

अपने माथे तिलक करना है तुझे।

 

जो उठे दामन पर हाथ कोई,

उन हाथों को जड़ से उखाड़ना है तुझे।

जो नज़रें तुझको घूरती हों,

उन गुस्ताख़ नज़रों को फोड़ना है तुझे,

उठ अभी कहीं और चलना है तुझे।

 

जो आवाज़ सिर्फ मधुर रागनी गाती,

जो आवाज़ें सिर्फ दर्द में चीखती कराहती,

उन आवाज़ों को बुलंद कर,

अपना अधिकार मांगना है तुझे,

उठ अभी कहीं और चलना है तुझे।

 

जो समाज तुझपर प्रश्न चिन्ह लगा रहा,

जो समाज तुझपर अपना फैसला सुना रहा,

जो समाज तेरे चरित्र का मोल लगा रहा,

उस समाज का जनाजा निकालना है तुझे,

उठ अभी कहीं और चलना है तुझे।

 

बस अब बहुत सह ली तूने ये वेदना

आंखों से बहती तेरी ये संवेदना,

रोक इसे अब।

जिनके कारण पलकें तेरी भींग गयी

उनके नयनों से भी

बहानी है थोड़ी ये वेदना।

 

उठ कि ये हिमालय भी झुकेगा,

उठ कि सूर्य भी तेरे सौर्य को करेगा नमन,

उठ कि सागर भी तेरे पग पखारेगा,

उठ कि अब नया संसार तुझे रचना है।

उठ अभी कहीं और चलना है तुझे।

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