Site icon Youth Ki Awaaz

उस रिक्शे वाले ने मुझे एहसास दिलाया कि ईमानदारी आज भी ज़िंदा है

यह किस्सा कुछ समय पहले का है जब मेरे पिता के देहांत के बाद, हम सभी परिवारजन, उनकी अस्थियां विसर्जन करने लिए हरिद्वार गए थे। सभी आवश्यक धार्मिक कार्यों को पूर्ण करने के पश्चात, हम शाम को गंगा आरती के दर्शन करने के लिए पुनः घाट पहुंचे। आरती के बाद, वापस अपनी गाड़ी तक जाने के लिए हम सभी ने 4-5 साइकिल रिक्शा किराये पर लिए। अच्छी या बुरी, यह तो पता नहीं पर मुझे आदत है लोगों से उनके नाम पूछने की।

करीब 22-24 साल के उस सांवले, दुबले पतले रिक्शा वाले ने अपना नाम बताया-ओम पाल। मैंने ओम पाल से कहा, “उस्ताद नृसिंह धर्मशाला की पार्किंग तक ले चल”। कितने पैसे लोगे? बोला यहां से रेट फिक्स है साहब, पचास रुपए। मैंने कहा ठीक है। अब हरिद्वार के बाज़ार की संकरी गलियों से होते हुए ओम पाल जी मुझे और मेरी श्रीमतीजी को लेकर रवाना हुए।

उस शाम हरिद्वार में थोड़ी बारिश भी हुई थी इसलिए उन पतले रास्तों पर काफी कीचड़ जमा था। मैंने देखा कि छेद वाले बनियान और एक पुरानी जींस पहने, ओम पाल नंगे पांव ही रिक्शा चला रहा था। कुछ दूरी पर जाते ही उसके रिक्शे की चेन उतर गयी। उसने रिक्शा साइड में लगाया और चेन चढ़ाने लगा।

चेन चढ़ाने के बाद हम वापस आगे बढ़ने लगे पर कुछ ही दूरी पर चेन फिर से उतर गयी। मैंने उससे पूछा, “कोई दिक्कत तो नहीं? उसने कहा कि नहीं साहब कोई दिक्कत नहीं। कुछ दूरी पर जब फिर से चेन उतरी तो मैंने कहा, “ब्रदर आप अपने 50 रुपये ले लो पर मुझे कोई दूसरा रिक्शा करा दो”। मैंने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि मुझे लगा कि हम लेट हो रहे थे। ओम पाल ने बोला, “नहीं साहब मैं अभी आपको वहां पहुंचा दूंगा”। कहकर वह बिना साइकिल की सीट पर बैठे, पैदल दौड़ते हुए रिक्शा खींचने लगा।

हो सकता है यह आम बात हो पर मिट्टी और कीचड़ से सने उन रास्तों में, हमें उसे नंगे पांव रिक्शा खींचते देखना, बिलकुल नागवार गुज़र रहा था। अंदर से एक अजीब सी आत्मग्लानि भी हो रही थी कि हम आराम से बैठे हैं और यह लड़का इतनी तकलीफ पा रहा है। मैंने फिर कहा, “ओम पाल मैं तेरे पैसे नहीं काटूंगा, तू पचास रुपये ले और हमें दूसरा रिक्शा करा दे”। इसपर उसने बोला, “साहब मुझे सिर्फ 5 मिनट और दे दीजिये”।

बदहवास से भागते, पसीने से तरबतर, ओम पाल ने 5 मिनट के अंदर, आखिर हमें हमारी गाड़ी तक पहुंचा ही दिया। मैंने उसे धन्यवाद कहा और उसके 50 रुपए आगे बढ़ाए। मैं देख सकता था कि उसकी आंखों में, स्वाभिमान की एक चमक थी। मैंने अपनी जेब से 300 रुपये और निकाले और उसकी ओर बढ़ाया।

ओम पाल ने बोला, “यह किसके लिए साहब”। मैंने कहा, “अपना रिक्शा ठीक करा लेना”। इससे पहले कि वह मुझे फिर से मना करता, मैंने कहा कि कुछ ही दिनों में मैं वापस हरिद्वार आऊंगा, तब हिसाब बराबर कर लेंगे।

बड़ी झिझक से उसने वह पैसे हाथ में लिए और उससे हाथ मिलाने के लिए जब मैंने हाथ आगे बढ़ाया तो वह हाथ जोड़े बस चुपचाप खड़ा रहा। मैंने उसे कहा,”हाथ तो मिला ले उस्ताद?” पर वह अपनी जगह पर वैसे ही हाथ जोड़े खड़ा रहा। मैं भी उसे ‘गुड बॉय’ कहकर वहां से चला गया।

इस छोटी सी कहानी को बयान करने का मकसद बस इतना है कि इस दुनिया में आज भी मेहनत, ईमानदारी और स्वाभिमान से जीने वालों की कमी नहीं है। अपनी रोज़मर्रा की इस ज़िंदगी में हम सभी बहुत से ऐसे लोगों से मिलते हैं, जो आपकी सच्चाई के प्रति विश्वास को और मज़बूत करते हैं। देश में फैले धर्म, जाति के इस राजनैतिक दलदल में आज भी हर कोई बेईमान, भ्रष्ट नहीं है। कुछ ओम पाल अभी भी ज़िंदा हैं।

Exit mobile version