ना चाहते हुए भी मैं मौजूदा दौर में युवा पीढ़ी के उस जमात में शामिल हूं, जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम के तमाम नायकों की तुलना अपने मनपसंद नायकों के साथ करके उन्हें सौ में सौ नंबर देकर महानायक सिद्ध करने की होड़ में हैं। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में ऐसे कई नायक या महानायक हुए हैं जिनके त्याग और बलिदान से आज हम आज़ाद मुल्क की हवा में सांस ले रहे है। कई महानायक ऐसे भी हैं जिनकी चर्चा उस दौर के अख़बारनवीसी में नहीं के बराबर है, पर उनकी कोशिशों और त्याग को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
गूगल सर्च इंजन में महानयकों की तुलना में सर्च का इतिहास और कई पत्रिकाओं में नायकों की तुलना बार-बार हमें यह बताने की कोशिश करते हैं कि फलां महानायक क्यों दूसरे महानायक से महान था और दूसरा उनसे क्यों कमतर था? इस सूची में कभी महात्मा गांधी और बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर, तो कभी जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस, तो कभी जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल, तो कभी महात्मा गांधी और भगत सिंह किसी न किसी संदर्भ में हमारे सामने तस्तरी में पेश कर दिए जाते है।
जबकि सच्चाई यह है कि आज़ादी के हर महानायक ने अपने-अपने विचारों के कठोर ज़मीन पर औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध संघर्ष किया है और मुल्क को खुदमुख्तार होने का सपना देखते हुए अपने खून-पसीने से उस सपने को सींचा भी था। कुछ दिन पहले भगत सिंह और एक दिन के बाद गांधी के जन्मदिवस पर गूगल पर 9 गुणा से ज़्यादा सर्च रिकार्ड यह बता रहा है कि हम फिर से अपने-अपने सांचों में महानायकों को एक-दूसरे से बीस बताने की कोशिश करने में मशरूफ़ है।
विचारधारा के कठोर ज़मीन पर मौजूदा दौर की अवसरवादी राजनीति यह करती है तो समझ में आता है कि राजनीतिक माइलेज लेने की कोशिशों में आज़ादी के महानायकों की महान छवि को धूमिल किया जाता है। परंतु, इन कोशिशों में समाज के अंदर फैलाया गया ज़हर हमारे समाज और युवाओं को छोटे-छोटे समूहों में बांट देता है। तय माने महानायकों ने ये कभी नहीं सोचा होगा कि औपनिवेशिक संघर्ष में विचारों की विविधता आज राजनीतिक रोटी सेंकने के काम आएगी और हम राजनीतिक दलों के एजेंट के रूप में एक भीड़ में तब्दील हो जाएंगे।
उस दौर में तमाम महानायकों ने अपनी विचारधारा में आस्था रखने के साथ-साथ दूसरी विचारधाराओं का भी सम्मान किया है। विविधता में एकता की ताकत को तमाम महानायक जानते थे।
भारतीय राजनीति के लाखों महानायकों में महात्मा गांधी और भगत सिंह भी समाज और युवाओं के बीच ना चाहकर भी एक साथ एक मंच पर लाकर पटक दिए जा रहे हैं। गांधी की जन्मतिथी 2 अक्टूबर है तो दूसरे की 28 सिंतबर, दोनों के जन्मदिन में बस तीन दिन दिन का अंतर है, मगर फासला 38 सालों का है।
एक का रास्ता शांत राष्ट्रवाद का है तो दूसरे का उग्र राष्ट्रवाद का। एक ने कहा कि एक गाल पर कोई मारे, तो दूसरा गाल आगे कर दो, तो दूसरे ने कहा झेलो मत मुंहतोड़ करारा जवाब दो। एक को 78 वर्ष में तीन गोलियों से मौत मिली तो दूसरे को फांसी पर चढ़ा दिया गया। एक की जान सांप्रदायिक ने ली तो दूसरे की जान साम्राज्यवाद ने। एक जीवित इसलिए रहे ताकि आज़ाद भारत खुली हवा में सांस ले सके और विभाजन के बारे में कभी ना सोचने वाले दूसरे ने तो देश को आज़ाद होते देखा भी नहीं। लेकिन अंतिम सांस लेने से पहले दोनों ऐसे-ऐसे काम कर गए कि कि आज भी दुनिया के दिलों में वे बसते हैं।
बहुत कम लोग इस बात की चर्चा करते हैं कि भगत सिंह अपने बाल्यकाल में गांधीजी को देश की आज़ादी का नायक मानते थे, बाद में उनके विचार गांधीजी से अलग हुए और उन्होंने देश की आज़ादी के लिए अलग विचारधारा की राह चुनी। गांधी पर आस्तिक विचारधारा का प्रभाव था, जबकि भगत सिंह नास्तिक विचारधारा पर यकीन रखते थे। मगर दोनों ही विपरीत विचारधाराओं का पूरा सम्मान करते थे।
फिर सवाल यही है कि विविधता से भरे हुए देश में विविध विचारों का प्रतिनिधित्व करते हुए महानायकों को तराज़ू के दो तुलाओं पर तोलना कितना सही है। तराज़ू के तुलाओं पर तोलने में हम यह भूल जाते है कि वास्तव में हम खुद कितने स्वार्थी हो रहे हैं। यह दो बिल्ली और एक बंदर की कहानी सरीखे ही है जहां बंदर दोनों तुलाओं पर रोटी के दो टुकड़े को तोल-मोल कर रोटी खाए जा रहा था और बिल्ली मुर्ख बनती जा रही थी। ज़ाहिर है विचारधारा के धरातल पर अज़ादी के महानायकों को तौलकर समाज और युवा वर्ग को बेवकूफ बनाया जा रहा है। महात्मा गांधी और भगत सिंह दोनों जिस भी विचारधारा में यकीन करते थे, दोनों का सपना भारत को एक खुदमुख्तार लोकतांत्रिक मुल्क ही बनाना था।
ज़रूरत इस बात कि है कि महानायकों के विचारधारा के साथ उनके संघर्ष का इतिहास हमारे सामने ईमानदारी से रख दिया जाए और हम अपने महानायकों का चयन करके उनके जीवन संघर्षों से प्रेरणा लें। क्योंकि इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि इन महानायकों का संघर्ष औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ तो था ही, हां उनके तरीकों से सहमत-असहमत हुआ जा सकता है। सहमत-असहमत होना भी एक लोकतांत्रिक ख्याल है और आज़ादी के तमाम महानायक आज़ाद भारत को एक लोकतांत्रिक खुदमुख्तार मुल्क ही बनाना चाहते थे। एक मयान में दो तलवारें एक साथ नहीं रखी जा सकती है, मगर दो अलग तलवारें एक साथ खड़ी हो तो किसी भी समस्या के विरुद्ध संघर्ष कर सकती है।