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क्या अंग्रेज़ी के शब्दों को हिन्दी में ज्यों का त्यों लिखने से हिन्दी खतरे में है?

कुमार विश्वास

कवि सम्मेलन के दौरान कुमार विश्वास

भाषा के बारे में कहा जाता है कि इसका भी अपना जीवन होता है। ये भी बाल्यकाल, जवानी, बुढ़ापे और विलुप्ति के पड़ाव पर पहुंचती है लेकिन भाषा के साथ सबसे खास बात यह है कि उसके वापस जीवित होने की अपार संभावनाएं होती हैं। पुर्नजीवित होने का यह गुण भाषा को इंसान के जीवन से अलग खड़ा करता है। दिलचस्प यह है कि भाषा का फिर से ज़िंदा होना भी इंसान के हाथ में होती है जिससे इंसान और भाषा की मज़बूती और बढ़ जाती है।

जिन माध्यमों से हिंदी को खतरा था, उन्हीं माध्यमों के अनुकूल खुद को ढालकर हिंदी अपने एक नए रूप को आकार देने की सार्थक कोशिशों में लगी हुई है। इसी फेहरिस्त में प्रख्यात कवि कुमार विश्वास का नया प्रोग्राम ‘केवी सम्मेलन’ जुड़ गया है। यह प्रोग्राम हिंदी को सही दिशा में वह गति देने की कुव्वत रखता है जिसकी इस भाषा को आज काफी ज़रूरत है।

हिंदी एक ऐसी भाषा है जो विभिन्न तरह की बोलियों के मेल से बनी है। कहीं ना कहीं यह इस भाषा का गुण है, जो विभिन्न भाषाओं को अपने अंदर समेटकर हमेशा अपने स्वरूप को निखारती रहती है। हिंदी के समावेशीकरण का यह गुण इतना व्यापक है कि इसने अपने से एकदम विपरीत धड़े की भाषा अंग्रेज़ी से भी दोस्ती कर ली और इस मेल-मिलाप का परिणाम ‘हिंग्लिश’ के रूप में सामने आ रहा है। टीवी, सोशल मीडिया और इंटरनेट तमाम ऐसे माध्यम हैं जहां हिंग्लिश धड़ल्ले से इस्तेमाल होती है लेकिन इससे एक तरफ जहां हिंदी का ही प्रसार-प्रचार हो रहा है तो वहीं एक दूसरी समस्या भी खड़ी हो रही है।

कोई भी भाषा दो तरह से जीवित रहती है। पहला बोलचाल और दूसरा लेखन। बोलचाल में तो हिंग्लिश का प्रयोग सहज-स्वाभाविक तौर पर आगे बढ़ रहा है लेकिन लेखन यानी मुद्रित स्तर पर भी अंग्रेज़ी के शब्दों को देवनागरी में लिखने की परंपरा सी चल पड़ी है, यह स्थिति ठीक नहीं लगती। लिखना किसी भी भाषा का एक गंभीर रूप होता है और बोलचाल उस भाषा का एक सरल रूप है। लेखन शैली में सरल हिंदी तो लिखी जा सकती है लेकिन उसमें अंग्रेज़ी के शब्दों को ज्यों का त्यों लिखना आगे जाकर हिंदी के अनेक शब्दों को खाने वाली बात हो जाएगी।

हालांकि, अच्छी बात यह है कि हिंदी को अब विभिन्न रोल मॉडल के माध्यम से अपना नया वितान मिलना शुरू हो गया है। इसको इसी बात से समझा जा सकता है कि भारत में सोशल मीडिया 2014 से विकसित होना शुरू हुआ था और अभी हाल ही में मिशिगन विश्वविद्यालय की ओर से किए गए एक अध्ययन में इस बात का खुलासा हुआ कि भारत में हिंदी ने ट्विटर पर अंग्रेज़ी को पीछे छोड़ दिया। ट्विटर की जब शुरुआत भारत में हुई थी तब इस बात का किसी को अंदाज़ा भी नहीं था लेकिन अब यह एक सच्चाई है।

ऐसे में कुमार विश्वास जैसे युवाओं में लोकप्रिय व्यक्तित्व की लोकप्रियता से भी हिंदी सार्थक लाभ ले रही है। हिंदी-भाषी विशाल जनता में अब हिंदी को व्यवहारिक स्तर पर जानने-सीखने की प्रवृत्ति बढ़ी है। ‘केवी सम्मेलन’ जैसे प्रोग्राम न्यूज़ चैनल पर आकर भी लगभग हर तरह का स्वस्थ हिंदी मसाला लोगों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं, उससे हिंदी की नई चेतना का विकास हो रहा है। प्रख्यात कवियों को कठिन, लेकिन मनमोहक हिंदी बोलते देखकर इस बात पर विश्वास हो जाता है कि भाषा के शब्दों में उसके अर्थ से ज्यादा महत्ता उसके भाव की होती है और ये भाव ही हैं जो सीधे दिल में उतर जाते हैं।

जब किसी शब्द का भाव मन को भाता है, तब उस शब्द के प्रति भी एक सहज प्रेम हृदय में विराजमान हो जाता है, जो बाद में उस शब्द को स्वाभाविक रूप से समझने की वृत्ति विकसित करवाकर ही मानता है। ऐसी स्वाभावित वृत्तियां विकसित करने के लिए बहुत ज़रूरी है कि हिंदी को एक ऐसा मंच मिले जो युवाओं को भी भाए, अपना भी व्यवसायिक मकसद हल करे और हिंदी को भी मनोहारी बना दे।

खास बात यह है कि जब आप ‘केवी सम्मेलन’ जैसे प्रोग्रामों में विभिन्न कवियों को अपनी उत्कृष्ट रचनाओं का भाव-विभोर प्रदर्शन करते देखते हैं तब बाद में यू-ट्यूब पर उन कवियों के बारे में जानने की जिज्ञासा खुद ही बढ़ने लगती है। इससे फायदा हिंदी को मिलता है।

हिंदी भाषा के क्लासिक विद्वान को आधुनिक मंच पर शब्द-लीलाएं करते देखना ऐसा ही लगता है जैसे कि हिंदी आधुनिकता में ढल नहीं रही, बल्कि आधुनिकता को अपने में ढाल रही है। ज़रूरत बस हिन्दी को और भी रचनात्मक मंचों पर आम-जनमानस के पास लाने की है ताकि युवा पीढ़ी भी थोपी हुई हीन-भावना से निकलकर इस भाषा के प्रति गौरवपूर्ण अभिवृत्ति विकसित कर सके।

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