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“सरकारी नीतियों की आलोचना करना राष्ट्रद्रोही होना नहीं होता”

ना जाने क्यों ऐसा प्रतीत हो रहा है कि ‘सरकारी विरोध’ को एक विचारधारा की तरह चिन्हित किया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि केवल वर्तमान सरकार ऐसी कोशिश कर रही है, मुझे लगता है कि कोई भी सत्ता यह कभी बर्दाश्त नहीं कर पाती है कि शक्ति की सर्वोच्चता हासिल कर लेने के बावजूद चंद लोग उसकी आलोचना कर रहे हों।

इन सबमें ज़रूरी है सरकार, देश और मानव अस्तित्व में अंतर समझना। अक्सर यह देखा गया है कि सरकारें ऐसी भावनात्मक लहरें देश में उठा देती हैं कि लोगों को लगने लगता है कि अगर कोई सरकार के साथ नहीं है तो वह देश के खिलाफ है। अगर कोई सरकारी नीतियों की आलोचना कर रहा है तो वह देश का विरोध कर रहा है पर ऐसा नहीं है।

अगर कोई व्यक्ति सरकार द्वारा नोटबंदी में हुई फिज़ूलखर्ची और व्यवस्था के दुरुपयोग पर सवाल खड़ा कर रहा है तो इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वह देश को कंगाल होते देखना चाहता है। अगर कोई व्यक्ति जम्मू और कश्मीर में 8% मतदान पर जनप्रतिनिधियों के चुने जाने का विरोध कर रहा है या अलगाववादियों की गोद में बैठकर पाकिस्तान को गालियां देती सरकार का विरोध कर रहा है, तो वह जम्मू कश्मीर विरोधी है ऐसा कतई नहीं है।

अगर कोई व्यक्ति आरबीआई की नज़रों के सामने बैंकों के अंधाधुंध कॉरपोरेट ऋण देते वक्त या एनपीए में अप्रत्याशित बढ़ोतरी होते वक्त सरकार के मूकदर्शक बने रहने का विरोध करता है, तो इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वह राष्ट्र विरोधी है।

हमें समझना होगा कि राष्ट्र केवल एक अवधारणा है, जिसके मूल, जिसकी इकाई में ज़िंदा इंसान है। महंगाई, गरीबी, भ्रष्टाचार, भूखमरी, लोकतंत्र, चुनाव, अर्थव्यवस्था, न्यायपालिका, सरकार या फिर यह ज़मीन का टुकड़ा भी उसी ज़िंदा इंसान के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं। अतः यह आवश्यक है कि सरकार के हर फैसले को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उस अंतिम ज़िंदा इंसान से जोड़कर देखा जाए और फिर उसकी समीक्षा की जाए।

सरकार महज़ एक अस्थाई व्यवस्था है जिसमें कुछ लोगों को लोगों द्वारा चुनकर लोगों के लिए काम करने हेतु नियुक्त किया जाता है। ये लोग, ये चुनाव सही भी हो सकते हैं और गलत भी पर इसे देश की प्रतिष्ठा या अस्तित्व से कभी नहीं जोड़ा जा सकता।

सही को सही और गलत को गलत कहने की क्षमता देश के हर व्यक्ति में होनी आवश्यक है। साथ ही सही और गलत को उसकी वास्तविकता बताने का निष्पक्ष ज्ञान होना भी उतनी ही ज़िम्मेदारी का सबब है। जिसका सबसे बेहतर उदाहरण अमेरीकी-वियतनाम युद्ध में देखने को मिलता है। जब अमेरिका की वियतनाम चढ़ाई का अमेरिकावासियों (खासकर लेखक, पत्रकार, साहित्यकार, कलाकार समूह) ने पुरज़ोर विरोध किया था, उन्होंने कृत्रिम सीमाओं को लांघकर उस नैतिकता का पालन किया जो राष्ट्र, सरकार, सीमा या स्वार्थ हर किसी से ऊपर है।

अब ज़रूरत है ऐसा साहस हर देश, हर कस्बे, हर मोहल्ले के लोगों को दिखाने की। कई ऐसे युद्ध, ऐसे कृत्य, ऐसे फैसले अभी बाकी हैं जिनका दमन करना, जिनका विरोध होना अभी भी बाकी है। अगर ऐसा नहीं किया गया तो यह एक मानवीय अनैतिकता होगी और इस अनैतिक समाज का खत्म हो जाना ही बेहतर होगा।

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