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“अगर इंदिरा का आपातकाल गलत था, तब मोदी की तानाशाही कैसे सही?”

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और इंदिरा गांधी

भारतीय राजनीति के इतिहास में जब भी इंदिरा गांधी का ज़िक्र होता है तब महत्वपूर्ण संस्था की गरीमा पर प्रहार करने के लिए उनको याद किया जाता है। बतौर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू उनसे अधिक लोकप्रिय थे लेकिन ‘शक्तिशाली’ प्रधानमंत्री के तौर पर इंदिरा की अधिक चर्चा होती है। यह ‘शक्ति’ उन्हें सत्ता के केंद्रीकरण से मिलती थी, जो अकसर संविधान के दायरे को भी पार कर जाती थी। उनके मंत्रिमंडल में नंबर दो के स्थान पर कोई नहीं था, क्योंकि वे ऐसा होने ही नहीं देना चाहती थीं। इतिहासकार इसे उनकी असुरक्षा और केंद्रीकृत सत्ता की उनकी प्रवृत्ति से भी जोड़ते हैं।

इंदिरा गांधी ने उन संस्थाओं की स्वायत्तता का बहुत सम्मान नहीं किया जो लोकतांत्रिक संरचना को स्थायित्व और गतिशीलता देने के लिए स्थापित की गई थी। उनके पिता जवाहरलाल नेहरू की छवि इस मामले में अच्छी रही है।

यह 70 के दशक का मध्य था जब “इंदिरा इज़ इंडिया’ के समूहगान ने मैडम की मति हर ली और अपने को देश के लिये अपरिहार्य मानते हुए उन्होंने इमरजेंसी की घोषणा कर दी। इसके बाद के घटनाक्रमों को इतिहास में अलग-अलग नज़रिये से परिभाषित किया जाता रहा लेकिन एक तथ्य स्पष्ट है कि जनता ने अपनी लोकप्रिय नेता और शक्तिशाली प्रधानमंत्री को उनकी अलोकतांत्रिक रवैये के लिये नहीं बख्शा। 1977 के आम चुनाव में कॉंग्रेस बुरी तरह से पस्त हुई, इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर होना पड़ा।

संस्थाओं पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आघात का खामियाज़ा इंदिरा गांधी को तो भुगतना पड़ा लेकिन मौजूदा दौर में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ क्या होगा? अगर इंदिरा का आपातकाल गलत था, तब मोदी की तानाशाही कैसे सही है। इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी ऐसे दूसरे प्रधानमंत्री हैं जिनके शासन काल में संस्थाएं दबाव में ही नहीं बल्कि बहुत अधिक दबाव में हैं। राजस्थान के एक ज़िला न्यायालय पर लफंगों की आक्रामक टोली द्वारा भगवा झंडा फहराने का मामला हो या विभिन्न केंद्रीय विश्वविद्यालयों के भगवा प्रयोग भूमि बनते जाने का मामला हो, यह शासन-सत्ता के सही तरीके से काम नहीं करने का प्रमाण प्रस्तुत करता है।

सीबीआई की फज़ीहत इतिहास में इससे अधिक कभी नहीं हुई और यह सीधा-सीधा राजनैतिक हस्तक्षेप का परिणाम है। किसी भी प्रधानमंत्री के राज में सीबीआई सत्ता का उपकरण ही बनी रही है लेकिन जो दृश्य अब सामने है, इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

सबसे दिलचस्प यह है कि इस संवेदनशील मामले पर वित्त मंत्री सरकार की ओर से बयान दे रहे हैं। यह दर्शाता है कि इस मामले में आंतरिक स्तरों पर सरकार में भी सब कुछ ठीक नहीं है और नरेंद्र मोदी की प्रशासनिक पकड़ भी संदेह के घेरे में आती जा रही है। 

मोदी सरकार द्वारा संस्थाओं की गरिमा पर किए गए प्रहारों की बात करें तब फेहरिस्त बड़ी लंबी हो जाएगी। राफेल विवाद पर वायुसेना प्रमुख का बयान हतप्रभ कर देने वाला था और ऐसा पहली बार हुआ कि कोई सेना प्रमुख किसी राजनैतिक विवाद में सत्ताधारी दल को राहत पहुंचाने वाला कोई बयान दे। यह अनावश्यक होने के साथ-साथ वायुसेना प्रमुख की गरिमा के खिलाफ भी है।

मोदी राज में जिस तरीके से सेना, सरकार और सत्ताधारी राजनैतिक दल को एक ही भावधारा से जोड़ने की कोशिश होती रही है, ऐसा इंदिरा गांधी और अटल विहारी बाजपेयी के राज में नहीं दिखा था।

अभी हाल ही में रिज़र्व बैंक के डिप्टी गवर्नर ने खुले तौर पर आरोप लगाया कि सरकार रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता का हनन कर रही है। जब बैंकों का एनपीए देश की अर्थव्यवस्था को खतरनाक मुहाने पर ले आया हो, ऐसे दौर में अपनी स्वायत्तता पर हो रहे आघात के प्रति रिजर्व बैंक का प्रतिरोध बहुत कुछ कह जाता है। रघुराम राजन के बाद रिजर्व बैंक गवर्नर उर्जित पटेल के भी सरकार से मतभेद सतह पर आते जा रहे हैं और यह अर्थ-व्यवस्था के लिये सुखद संकेत नहीं है। कयास लगाए जा रहे हैं कि उर्जित पटेल अपना निर्धारित कार्यकाल शायद ही पूरा करें।

जवाहर लाल नेहरू को संस्थाओं के निर्माण और इंदिरा गांधी को संस्थाओं के दमन के लिये याद किया जाएगा। जबकि संस्थाओं को नष्ट करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमेशा याद किए जाएंगे।

इतिहास में दर्ज है कि सत्ता के केंद्रीकरण और स्वेच्छाचारी कार्यक्लापों के लिये इंदिरा गांधी को प्रबल जन-प्रतिरोध का सामना करना पड़ा लेकिन नरेंद्र मोदी के खिलाफ ऐसा कोई सघन और संगठित प्रतिरोध नज़र नहीं आ रहा। ऐसा क्यों है? इसका जवाब हमें 1970 के दशक के भारत और 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक के उत्तरार्द्ध के भारत में जो अंतर है, इसमें ढूंढना होगा। तब देश में अशिक्षा और गरीबी अधिक थी लेकिन लोगों की चेतना क्रांतिधर्मी थी। प्रतिरोध के नेतृत्व का अपना आभामंडल था।

मीडिया पर भले ही इमरजेंसी का खौफ था लेकिन वह बिका नहीं था। उपनिवेशवाद के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ने वाली पीढ़ी खत्म नहीं हुई थी और मध्य वर्ग उपभोक्तावाद के शिकंजे में बेबस नहीं हुआ था। जनता के बीच विभाजन की लकीरें इतनी गहरी नहीं थी। तभी तो स्वेच्छाचारी तानाशाही की आहट मात्र से जन चेतना में जो ज्वार उभरा, उसने सत्ता की चूलें हिला दी।

आज का मीडिया सिर्फ डरा या बिका हुआ ही नहीं है, बल्कि उसी सत्ता संरचना का अंग बन गया है जो शोषण और लूट की बुनियाद पर अपनी सत्ता संचालित कर रही है।

मौजूदा दौर में विभाजित जनमानस प्रभावी प्रतिरोध नहीं कर सकता, क्योंकि अब वर्गीय स्वार्थ अधिक महत्वपूर्ण हैं। बतौर नेता या फिर एक प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी आज नहीं तो कल राजनैतिक दृश्य पटल से ओझल होंगे। शायद इसी से आगे का रास्ता भी निकले।

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