Site icon Youth Ki Awaaz

एक मज़बूत देह और रूह वाले किसानों को किस तरह लाचार बना रही है सरकार

कल गांधी नाम के उस आदमी की 149वीं जयंती थी, जिसके बारे में आने वाली पीढ़ी यह विश्वास नहीं करेगी कि उसके जैसा हाड़-मांस का पुतला कभी इस धरती पर चला था। यह सच है कि वह चला था, दुनिया की सबसे बड़ी ताकत के खिलाफ चला था और उसके पीछे चली थी हिन्दुस्तान की लगभग पूरी जनता, इसलिए कि उसमें ब्रिटिश हुकूमत के नौकर और दलाल शामिल नहीं थे। नौकरों की तो फिर भी मजबूरी थी, लेकिन दलालों की?

ब्रिटिश हुकूमत से पैसा पाने वाले ये दलाल धार्मिक कट्टरपंथ की आड़ में हिन्दुस्तान से गद्दारी कर इसकी उस लड़ाई को कमज़ोर कर रहे थे, जो लड़ाई यह मुल्क औपनिवेशिक लूट से अपनी आज़ादी और अपने आम लोगों के जीने के हक के लिए लड़ रहा था।

चंपारण में गांधी

कल जिस गांधी की 149वीं जयंती थी, उसने हिन्दुस्तानी सरज़मीं पर अपनी लड़ाई बिहार के चम्पारण में नील की खेती के लिए मजबूर किए जा रहे किसानों के हक में शुरू की थी। एक ऐसी लड़ाई, जिसमें उस आदमी की नामी बैरिस्टरों की टीम ने डरे हुए, सताए गए हज़ारों किसानों से मुलाकात की, उनके बयान सुने, उनकी आवाज़ कागज़ों में दर्ज की, सरकारी मुकदमे और इल्ज़ामात झेले लेकिन उनके हक में लड़ाई लड़ी।

वह बूढ़ा उन किसानों के साथ जमा रहा, धोती लपेट ली, स्कूल खोले, चरखे शुरू किए, उनकी माली हालत सुधारने के लिए तमाम तरह के सुधार किए। उस बूढ़े आदमी ने अपने रचनात्मक कार्यक्रमों में किसान, मज़दूर और आदिवासियों को शामिल रखा। किसानों की बेहतरी को रचनात्मक कार्यक्रमों में शामिल करते हुए गांधी नाम के उस आदमी ने लिखा है,

स्वराज्य की इमारत एक ज़बर्दस्त चीज़ है, जिसे बनाने में 80 करोड़ हाथों को काम करना है। इन बनाने वालों में किसानों की यानि खेती करने वालों की तादाद सबसे बड़ी है। सच तो यह है कि स्वराज्य की इमारत बनाने वालों में ज़्यादातर (करीब 80 फीसदी) वही लोग हैं।

वह आदमी बहुत सफाई से यह मानता है कि हिन्दुस्तान का किसान, हिन्दुस्तान के स्वराज्य की इमारत बनाने वाले हाथों में सबसे अहम है। वह हिन्दुस्तान के लिए उत्पादक कामों में लगा रहा है और उसके बदले उसे उचित मज़दूरी-मुआवज़ा भी नहीं मिलता है, साथ ही मुल्क की आज़ादी की किसी भी लड़ाई में वह सबसे बड़ी कुर्बानी देने के लिए भी हरदम तैयार रहता है।

हिन्दुस्तान परस्त किसानों की यही प्रवृत्ति और स्थिति आज भी है। वह खुद भूख के खिलाफ जंग में अपनी आखिरी सांस तक झोंक देता है और अपने बेटे को मुल्क की सरहद की हिफाज़त के लिए अपने खून का आखिरी कतरा बहने तक डटे रहने के लिए रवाना करता है।

वह किसान, जिसकी देह और रूह इतनी मज़बूत है, वह लाचार या मजबूर तो कतई नहीं हो सकता। दरअसल, वह शिकार है और शिकारी हैं कॉर्पोरेट पैसों से चुनाव जीतने वाली ये सरकारें, जो किसानों का हक लूटकर, उनके चुनावी खर्चे उठाने वाली पूंजीवादी सत्ताओं के हितों में डाल रही हैं।

किसानों के नाम से तमाम तरह की योजनाएं निकाली गईं, जिसका बजट घूम फिरकर बड़ी-बड़ी कम्पनियों के खाते में ही जाता है। शुरुआती सरकारों को छोड़कर बाकी सरकारों द्वारा खेती की बेहतरी के लिए खेत तक कोई ठोस-कारगर कार्यक्रम नहीं पहुंचाए गएं, ना आर्थिक, ना वैज्ञानिक, ना सामाजिक।

इस सरकार द्वारा तो किसानों को थोड़ी सब्सिडी, छोटी ऋण माफी जैसी योजनाओं से दिग्भ्रमित किया गया, जबकि यह समझने लायक है कि दुनिया के सबसे अमीर देश भी अपने किसानों को भारी सब्सिडी और सुविधा देते हैं। यहां कुछ राज्य सरकारों का क्रूरतापूर्ण चेहरा याद करने लायक है कि किस तरह किसानों की ऋण माफी पैसों में हुई थी।

किसान भोजन उपजाते हैं, जो जीने के लिए अनिवार्य चीज़ है। निश्चित रूप से इसकी इतनी कीमत नहीं रखी जा सकती है कि लोगों के लिए  खरीदना मुश्किल हो। तो क्या किया जाए? इसका एक प्रतिक्रियात्मक तर्क यह भी तो हो सकता है कि कॉर्पोरेट सत्ताओं की फैक्ट्री में बनने वाली दवाइयां भी जीने के लिए अनिवार्य हैं लेकिन उसकी कीमत तो उसके उत्पादन से कई गुना ज़्यादा होती हैं। क्या दवाइयों की कीमत पर लोगों के खरीदने की मुश्किल का तर्क लागू नहीं होता?

बहरहाल, यह मसले का कोई हल नहीं है। मसले का हल इस सवाल में है कि किसानों को अपनी उपज की इतनी कीमत तो ज़रूर मिले कि कम-से-कम उसका परिवार फोर्थ ग्रेड की सरकारी नौकरी की मज़दूरी और सुरक्षा-स्कीम पाने वाले के स्तर का जीवन गुज़ार सके। अब चाहे सरकार सुविधाएं देकर उनकी लागत शून्य कर दे, न्यूनतम कर दे या उसकी उपज की कीमत कई गुना कर दे यह सरकार समझे।

जिनके दिमाग को यह कुतर्क चुभता हो वह दवाई के साथ-साथ किसी बिस्कुट की कीमत पर भी गौर कर लें कि केवल प्रौसेस कर देने की वजह से 12 रुपये किलोग्राम बिकने वाले मक्के की कीमत औसतन कम-से-कम 10 रुपये प्रति 60 ग्राम कैसे हो जाती है?

वे इस पर भी गौर करने की ज़हमत उठा लें कि बिस्कुट बनाने वाली ब्राण्ड सरकार से कितनी तरह की रियायत लेती है? दूसरी ज़हमत वे यह पता लगाने की भी उठा लें कि उन कम्पनियों के मालिकों को अपनी मांग रखने के लिए कितनी बार दिल्ली आना पड़ता है? उस पर केन्द्र सरकार की पुलिस कितनी बार लाठीचार्ज करती है? उन्हें कितनी बार पेशाब पीना पड़ता है? उन्हें कितनी बार अपने परिवार के लोगों के नरमुण्डों के साथ अपनी चुनी हुई सरकार की नाक के नीचे प्रदर्शन करना पड़ता है?

उन्हें यह सब कभी नहीं करना पड़ता है, क्योंकि यह सरकार उनकी पॉकेट में है। उनके लाखों करोड़ों के लोन आम लोगों की पूंजी से चलने वाले बैंकों द्वारा डूबत खाते में डाल दी जाती है, उन्हें सरकारी मशीनरी द्वारा भरपूर मौका दिया जाता है कि वे कोई ऐसा लोन लें और निगल जाएं।

यह सरकार उन कॉर्पोरेट सत्ताओं के लिए दुनिया के तमाम देशों में उनके एजेंट की तरह लॉबिंग करती है, जबकि आम किसानों की एक पदयात्रा को गांधी जैसे अहिंसक आदमी की जयंती पर दिल्ली ना पहुंचने देने के लिए पुलिसिया बर्बरता का इस्तेमाल करती है। केन्द्र सरकार की पुलिस और उसके आईपीएस अधिकारी बर्बरतापूर्वक किसानों को पीटते हैं, उनपर रासायनिक हथियार इस्तेमाल करते हैं, उनपर पानी की बौछार करते हैं।

जब इन्हें सरकार को अपनी आवाज़ सुनाने के लिए खुद आना पड़ता है और पुलिसिया बर्बरता सहनी पड़ती है तो आखिरकार वे नुमाइन्दे किसकी नुमाइन्दगी करते हैं, जिन्हें इन किसानों ने चुनकर भेजा है?

कल की तस्वीरें उस प्रक्रिया की ओर इशारा करती हैं, जिसका ज़िक्र करते हुए उसी गांधी ने कहा है,

जब किसानों को अपनी अहिंसक ताकत का ख्याल हो जाएगा, तो दुनिया की कोई हुकूमत उनके सामने टिक नहीं सकेगी।

कल ही के दिन एक और आदमी की जयंती थी, जिसने अपने बहुत प्रसिद्ध नारे में किसानों की जय जयकार की थी, पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री। आज उनके “जय जवान, जय किसान” को रौंदकर उनकी गद्दी पर बैठने वाली कुछ कॉर्पोरेट कठपुतलियां इस षड्यंत्र को हकीकत बनाने की कोशिश में एड़ी-चोटी एक कर रही होगी कि किस तरह किसी रहमत अंसारी, गुरपाल सिंह या जोसेफ मरांडी की ज़मीन पर अम्बानी, अडानी, XYZ एग्रोफार्म खड़ा हो। किस तरह ये अंसारी, मरांडी उस ज़मीन के मालिक से एग्रोफार्म के मजबूर मज़दूर बन जाएं, जिनकी कीमत कौड़ियों के भाव लगाई जा सके।

________________________________________________________________________________
फोटो स्त्रोत- सोशल मीडिया

Exit mobile version