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‘IIT BHU’ में विरोध और असहमति के अधिकार खत्म क्यों कर रहा है प्रशासन?

आईआईटी बीएचयू

आईआईटी बीएचयू में प्रदर्शन करने पर रोक

आईआईटी (बीएचयू) देश के पुराने और श्रेष्ठ तकनीकी संस्थानों में से एक है। इस लेख का उद्देश्य संस्थान की गरिमा को ठेस पहुंचाना नहीं है। ‘आईआईटी (बीएचयू) प्रशासन’ और ‘आईआईटी (बीएचयू)’ के बीच के महीन अंतर को महसूस करके आगे का लेख पढ़ें।

आईआईटी (बीएचयू) प्रशासन इसी मुर्दा शान्ति से छात्रों को भरना चाहता है। अभी हाल ही में आईआईटी (बीएचयू) प्रशासन द्वारा एक नोटिस जारी की गई जिसके तहत प्रशासन ने यह नियम लागू किया है कि संस्थान का कोई भी छात्र अथवा कर्मचारी किसी भी प्रकार के घेराव, प्रदर्शन, धरना, या फिर भूख हड़ताल पर नहीं बैठ सकता। यदि वे ऐसा करते हुए पाये जाते हैं तब उनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। मुद्दा इतना महत्वपूर्ण क्यों है यह जानने के लिये निम्न दो घटनाक्रमों पर नज़र डालने की ज़रूरत है।

मार्च 2017 की बात है जब संस्थान में मेरा दूसरा साल था और प्रथम वर्ष के एक छात्र की चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में मृत्यु हो गई। इसके कुछ महीने पहले ही सितम्बर 2016 में पंचम वर्ष (आईडीडी) के एक छात्र की मृत्यु भी इसी वजह से हुई थी। इन दोनों घटनाओं के कारण छात्रों के बीच महीनों से तनाव का माहौल था जिसने एक संघर्ष का रूप ले लिया। प्रदर्शन के चलते संस्थान के लगभग सभी छात्रों ने निदेशक कार्यालय का घेराव कर अपनी मांगे रखी। इनमें से कुछ मांगे पूरी की भी गई। हालांकि इसके बाद भी अप्रैल 2017 में एक छात्र ने आत्महत्या का प्रयास किया और पुनः चिकित्सा अभावों के चलते उसे बचाया ना जा सका।

दूसरा उदहारण है जब नवंबर 2017 में कुछ गुंडे संस्थान परिसर में घुसे और सुरक्षाकर्मियों तथा छात्रों के साथ मारपीट की। ये सामाजिक अवयव संस्थान में हो रहे एक सांस्कृतिक आयोजन के विरोध में थे। हालांकि इनका संस्थान से कोई सम्बन्ध नहीं था। संस्थान प्रशासन एवं सुरक्षा अधिकारियों की नाकामियों के चलते ना केवल यह आयोजन स्थगित हुआ, बल्कि उसके बाद संस्थान के छात्र आईआईटी लिखी हुई टी-शर्ट पहनने से भी कतराने लगे। इसके बाद आईआईटी के छात्रों ने ऑनलाइन माध्यमों से लेकर संस्थान के अंदर प्रदर्शन करते हुए अपनी बात मानव संसाधन विकास मंत्रालय तक पहुंचाई जिसके बाद ना केवल उन गुण्डों को जेल पहुंचाया गया बल्कि तत्कालीन निदेशक राजीव संगल से मंत्रालय ने घटनाक्रम का ब्यौरा भी मांगा।

  आईआईटी बीएचयू द्वारा जारी की गई नोटिस

जिस संस्थान के छात्र महत्वपूर्ण परिवर्तनों और विरोध संघर्षों में प्रतिभागी रहे हैं वहां विरोध और असहमति के अधिकार को समाप्त कर देना क्रूर एवं तानाशाही है। एक तरफ हार्वर्ड में ए़डमिशन  के समय छात्रों से इस बात का ब्यौरा लेते हैं कि उन्होंने छात्र राजनीति में कितना हिस्सा लिया है, वहीं दूसरी ओर आईआईटी (बीएचयू) प्रशासन ऐसे संविधान विरोधी फतवे निकाल रहा है। अभिव्यक्ति के अधिकार के साथ-साथ विचारों की असहमति का अधिकार भी समाप्त किया जा रहा है। ये तो वही बात हो गई कि आईआईटी बीएचयू प्रशासन लापरवाही करती रहे और छात्र धरना प्रदर्शन भी ना करें।

आपको बता दें आईआईटी (बीएचयू) की नोटिस में लिखा गया है कि ऐसा कोई प्रदर्शन ना किया जाए जो संस्थान के लिए हितकर ना हो। यह अभी भी समझ से परे है कि संस्थान प्रशासन ने इतनी आसानी से कैसे संस्थान के हितों को छात्रहित से पृथक कर दिया । मैं गांधी का बहुत अच्छा अनुसरणकर्ता नहीं हूं लेकिन फिर भी मुझे ‘असहयोग आन्दोलन’ पूरे स्वतन्त्रता संग्राम का सबसे अलग और नया विचार लगता है।

यह हाल में आई हुई सबसे नई नोटिस है। इससे पहले भी अंग्रेज़ी में नोटिस की हेडिंग डालकर ऐसे तानाशाही पूर्ण फतवे आते रहे हैं।

1. क्वांटम ऑफ पनिशमेंट

आईआईटी (बीएचयू) प्रशासन ने हाल ही में यह दस्तावेज निकाला है। इसमें विभिन्न गतिविधियों को अपराध की श्रेणी में रखते हुए बिना किसी जांच, साक्ष्य और गवाहों के सज़ा का प्रावधान है। यह पुनः संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है। कुछ अपराध इस प्रकार हैं: अगर छात्रवास में छात्र के कमरे में माता/पिता/भाई/बहन प्रवेश करते हुए पाये जाते हैं तब छात्र पर ₹ 1000 का दण्ड लागू होगा। अगर वह चचेरा भाई/बहन है (सगा रिश्तेदार नहीं) तो ₹ 5000 का दण्ड लगाया जाएगा। हॉस्टल वार्डन से बहस करने पर आर्थिक और अन्य प्रकार के दण्ड का प्रावधान है। इसी तरह के और भी तमाम आधारहीन अपराध है।

2. संस्थान के छात्रों की इंटरनेट गतिविधियों पर नज़र रखने सम्बन्धित नोटिस

एक तरफ तो हम आधार कॉर्ड की वैधानिकता पर लड़ाई कर रहे हैं और माननीय सर्वोच्च न्यायालय से निजता का अधिकार प्राप्त कर चुके हैं। वहीं दूसरी ओर आईआईटी (बीएचयू) प्रशासन छात्रों द्वारा प्रयोग किये जा रहे इंटरनेट पर नज़र रखता है। कौन सा छात्र कब कौन सी साइट खोलकर देखता है यह पूरा ब्यौरा प्रशासन के पास रहता है, जिसे समय-समय पर सार्वजनिक किया जाता रहता है। प्रश्न यह है कि आज के समय में जब इंटरनेट एक मूलभूत सुविधा बनती जा रही है तो क्या संस्थान का यह कर्तव्य नहीं बनता है कि वह यह सुविधा छात्रों को उनके व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिए मुहैया कराये।

ऐसे तमाम फतवे हमारे संस्थान में आते रहते हैं। परन्तु जब यह नियम आया है कि आप विरोध भी नहीं कर सकते, तब एक अजीब सी घुटन का अहसास होने लगा। क्या हम भी मुर्दा शान्ति से भर जाएं? क्या समाज हम आईआईटियंस से केवल यह आशा करता है कि हम मशीनें बनाते-बनाते एक दिन खुद ही मशीन बन जाएं? क्या संस्थान यह स्वीकार करता है कि समाज के प्रति हमारा कोई कर्त्वय नहीं?

हाल ही में गंगा को बचाने को लेकर एक भूख हड़ताल के चलते आईआईटी, कानपुर के प्रोफेसर जी.डी.अग्रवाल जी की मृत्यु हो गई। प्रशासन को कोई फर्क नहीं पड़ा। हमें सोचना होगा कि क्या हम ऐसे लोकतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं जहां पर्दे के पीछे सिर्फ तानाशाही ही है और हर पाँच वर्ष पर हम केवल अपना तानाशाह बदलते हैं। मैं समाजवादी विचारधारा का भी नहीं हूं मगर लोहिया की एक बात याद आती है जो मैंने कहीं अंग्रेज़ी में पढ़ी थी कि, “सच्चे क्रांतिकारी पांच साल का इंतज़ार नहीं करते।”

अब जब हम छात्र अगर इस फतवे का विरोध करेंगे तब संस्थान से निकाल दिए जाएंगे। अतः अब आशा है कि मीडिया हमारा साथ दे। शायद कोई होगा जो मुर्दा शान्ति से नहीं भरा होगा। चलिए लेख की समाप्ति के साथ मैं पाश की कविता ‘सबसे खतरनाक’ की कुछ पंक्तियों पर आपको छोड़ जाता हूं।

सबसे खतरनाक होता है, मुर्दा शान्ति से भर जाना;
ना होना तड़प का, सब कुछ सहन कर जाना।
घर से निकलना काम पर और काम से लौट कर घर आना।
सबसे खतरनाक होता है, हमारे सपनों का मर जाना।

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