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क्या यूपी में ‘पदक लाओ पद पाओ’ की तर्ज पर ही ‘लाश लाओ पद पाओ’ का फॉर्मूला है?

उत्तर प्रदेश सरकार की एनकाउंटर पॉलिसी का आम जनता पर प्रभाव

उसके कत्ल पर मैं भी चुप था मेरा नंबर अब आया

मेरे कत्ल पर आप भी चुप हैं अगला नंबर आपका है

-नवाज़ देवबंदी

ये लाइनें सिर्फ लाइनें नहीं हैं। ये हमारे आज के समाज की कोरी सच्चाई है। उत्तर प्रदेश जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, वहां राम राज्य आया हुआ है। योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री का पद सम्भालते ही हर उस आवाज़ को जो सत्ता के खिलाफ उठती है, उसे दफन करने की पुलिस को छूट दी है। एक सफल तानाशाह की तरह छात्र, मज़दूर, किसान, नौजवान, कर्मचारी, शिक्षक जिसने भी सत्ता की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाई, उनका बड़ी क्रूरता से पुलिस द्वारा दमन करवाया गया।

फोटो साभार- Getty

इस छूट का ही नतीजा है कि सरकार आने के बाद से अब तक उत्तर प्रदेश की पुलिस एनकाउंटर-एनकाउंटर खेल रही है। यहां की पुलिस तो मीडिया को बुलाकर लाइव एनकाउंटर तक कर रही है।

कुछ महीने पहले तो उत्तर प्रदेश के एक पुलिस अधीक्षक का सार्वजनिक बयान सोशल मीडिया पर आया था कि ऊपर से उनके पास बार-बार फोन आते हैं और यह पूछा जाता है कि उनके ड्यूटी इलाके में बाकी जगहों से कम एनकाउंटर क्यों हुए हैं।

क्या इसका सीधा अर्थ यह नहीं निकलता है कि पुलिस को इलाकेवार हत्या करने का कोटा दिया हुआ है, जो कोटा पूरा करेगा उसे बड़ा दाम, बड़ा इनाम और बड़ा पद मिलेगा।

जिस प्रकार सरकारें घोषणा करती हैं कि खेल में पदक लाओ-पद पाओ, ठीक उसी प्रकार यूपी में मौखिक घोषणा है कि लाश लाओ, पद पाओ। 

यूपी एनकाउंटर में मारे गए विवेक तिवारी अपनी पत्नी के साथ (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

अखलाक के हत्यारे की जब जेल में बीमारी से मौत हुई तो उसको भी मान-सम्मान और उसके परिवार को मुआवज़ा दिया गया। ऐसे ही राजस्थान में एक मज़दूर मुस्लिम की हत्या करने वाले आरोपी शंभूलाल के लोकसभा चुनाव लड़ने की खबर है।

उत्तर प्रदेश में विवेक तिवारी की पुलिस द्वारा हत्या भी उसी दाम, इनाम और पद के लालच में कई गयी हत्या है लेकिन उस पुलिस वाले को क्या मालूम था कि गाड़ी में बैठा शख्स मुस्लिम, दलित ना होकर अमीर ब्राह्मण निकल जायेगा। अब दांव उल्टा पड़ गया तो इनाम की जगह जेल पहुंच गया। सरकार ने 25 लाख रुपये और पहले दर्जे की नौकरी मृतक की पत्नी को देने का ऐलान कर दिया।

अब सरकार एक तरफ तो ये सब कर रही थी तो वहीं दूसरी तरफ उसने अपने संगठनों को दोषी पुलिस वाले के बचाव के लिए इशारा कर दिया। सरकार ने मुआवज़ा और नौकरी देकर अपने मज़बूत वोटरों को भी बचा लिया और दूसरे हाथ से कातिल को भी बचाने में लगी हुई है।

जिसका कत्ल हुआ वो परिवार भी योगी-योगी कर रहा है और कातिल भी योगी-योगी कर रहा है। पुलिस वाले के पक्ष में बड़ी-बड़ी पोस्ट सोशल मीडिया पर लिखी जा रही है। पुलिस वाले को गरीब का बेटा और मृतक को अमीर, SUV गाड़ी वाला, अय्याश की तरह पेश करके हत्यारे के पक्ष में अमीर के खिलाफ गरीब के बेटे वाला कार्ड खेला जा रहा है। जो इनकी पोस्ट के खिलाफ तार्किक कमेंट कर रहा है उनको मां-बहन की गालियां दी जा रही हैं।

कौन हैं ये लोग जो हत्यारों के पक्ष में माहौल बनाते हैं-

इनकी फेसबुक प्रोफाइल पर धार्मिक इंसान, धार्मिक चिन्ह का फोटो मिलता है, इनकी फेसबुक दीवार भरी हुई है ज़हरीली पोस्टों से। इनका खास एजेंडा ही सत्ता के पक्ष में माहौल और सत्ता का विरोध कर रहे अवाम के खिलाफ ज़हर फैलाना है। विरोधियों को चुप करवाने के लिए मां-बहन की गालियां देना इनका मुख्य हथियार है।

पुलिस को संविधान की नज़र में जनता के रक्षक के तौर पर नियुक्त किया जाता है लेकिन ये तो रक्षक की जगह भक्षक बनी हुई है।पुलिस का काम है कानून तोड़ने वालों के खिलाफ कानून के दायरे में रहकर कानूनी कार्यवाही करना लेकिन क्या पुलिस कानून के दायरे में रहकर कुछ करती है ? इसका मुख्य कारण क्या है? क्यों संविधान की कसम खाकर नौकरी ज्वाइन करने वाले रंग बदल लेते हैं।

फोटो साभार- Getty

इसका मुख्य कारण सत्ता है। सत्ता का रंग जैसा होगा वैसा ही पुलिस का रंग होगा। अगर सत्ता निरंकुश है तो पुलिस और सेना भी निरंकुश होती है। सत्ता मेहनतकश की तो पुलिस भी मेहनतकश की लेकिन भारत की सत्ताएं निरकुंश रही हैं। सभी सत्ताएं अपने खिलाफ उठने वाली जायज़-नाजायज़ आवाज़ों को पुलिस और सेना के माध्यम से ही दफन करती रही हैं लेकिन वर्तमान केंद्र और उत्तर प्रदेश की सरकार वैचारिक तौर पर मज़दूर-किसान, दलित, मुस्लिम और पिछड़े वर्ग की विरोधी है। ये अपने खिलाफ उठने वाली सभी आवाज़ों को दफनाने के लिए पुलिस के अलावा शिक्षित लोगों की अंधी भीड़ का सहारा भी ले रही हैं।

भीड़ कत्ल करती है, भीड़ कत्ल करने वालों के पक्ष में आवाज़ उठाती है-

ये भीड़ कातिलों के लिए चंदा इकट्ठा करती है, भीड़ कातिलों के खिलाफ उठने वाली आवाज़ों को चुप करवाती है। एक पूरा ढांचा है। ढांचे में कई ग्रुप हैं। कत्ल करने वाले कत्ल करते हैं, फिर दूसरा ग्रुप कातिल के बचाव में और मरने वाले के खिलाफ माहौल बनाता है। अगला ग्रुप हत्याओं के खिलाफ आवाज़ उठाने वालों को देखता है।

इसके बाद कत्ल करने वाला ग्रुप अगले शिकार के लिए निकल जाता है। ये सिलसिला सत्ता के इशारों पर चल रहा है। कभी गाय, कभी धार्मिक स्थान, कभी बच्चा चोरी के नाम पर लोग मारे जा रहे हैं।

सोचते थे कि जैसे-जैसे शिक्षा का स्तर बढ़ेगा वैसे-वैसे जाति-धर्म और नफरत की दीवार भरभरा कर ढह जाएगी। टेक्नोलॉजी आएगी तो लोग दूर के लोगों से संपर्क में आएंगें तो एक दूसरे की संस्कृति, समाज, पहनावा, रहन-सहन, भाषा-बोली से सीखकर एक बेहतर समाज बनाएंगे।

लेकिन क्या मालूम था कि इस शिक्षा और टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल अमीर लोग अपनी सत्ता कायम रखने के लिए पढ़े-लिखे लोगों को इस अंधी भीड़ का हिस्सा बनाने में करेंगे। ऐसी भीड़ जो खून की प्यासी है, जो नफरत की दीवार को मज़बूत करती है। ऐसी भीड़ जो दूसरों के धर्म, जाति, संस्कृति, पहनावे, समाज, भाषा-बोली को तुच्छ और अपने को सर्वोपरी समझती है, ऐसी अंधी भीड़ जो सत्ता के आदेश पर अपनों का भी कत्लेआम कर दे।

बाहुबली में जैसे कट्टपा अंधा होकर राज्य का आदेश मानता है। राज्य का आदेश राज्य के लिए, अवाम के लिए सही है या गलत ये सोचे बिना उसे लागू करता है। आज की सत्ता के पास तो ऐसे लाखों कट्टपाओं की अंधी भीड़ है जो ना खुद सत्ता से सवाल करे और जो सवाल करे उसकी गर्दन काट दे। आज उस भीड़ की संख्या देश में बढ़ती जा रही है। भीड़ द्वारा आवाज़े बन्द की जा रही हैं।

हालांकि कुछ प्रगतिशील लोग अब भी इस भीड़ का हिस्सा ना बनकर भीड़ के खिलाफ, भीड़ की आंखों को सच्चाई की रौशनी दिखाने के लिए व सरकार की बंदूक वाली नीति के विरोध में मज़बूती से खड़े हैं। वे इन हत्याओं का विरोध करते हैं। वे मज़बूती से सभी हत्याओं की तरह ही विवेक तिवारी की हत्या के खिलाफ भी खड़े हैं और लड़ रहे हैं, ये अच्छी बात है। उन्होंने यह साबित कर दिया है कि हत्या-हत्या ही होती है वो चाहे किसी की भी हो अमीर की हो चाहे गरीब की, सवर्ण की हो चाहे दलित की। सत्ता द्वारा करवाई गई ऐसी हत्याओं को देश का प्रगतिशील अवाम कभी मंज़ूर नहीं करेगा।

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नोट- यह लेख पहले  नेशनल स्पीक में प्रकाशित हो चुकी है।

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