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“भला ये किसान शहरवासियों का जीना मुहाल क्यों कर देते हैं”

किसान आंदोलन और मोदी सरकार में किसानों की स्थिति और उनकी मांग

किसान आंदोलन और मोदी सरकार में किसानों की स्थिति और उनकी मांग
फोटो साभार- सोशल मीडिया

इन दिनों दिल्ली बॉर्डर पर किसान आक्रोश की ये तस्वीर सोशल मीडिया पर लगातार छाई हुई है, जिसमें एक बूढ़ा किसान पुलिस प्रशासन से सामना करता नज़र आ रहा है। हर रोज़ इस तस्वीर को अलग-अलग लोग शेयर कर रहे हैं। अपनी बूढ़ी और कमज़ोर बाज़ुओं से अपने आक्रोश और अपनी मांगों को बल देते इस किसान को यह अंदाज़ा भी नहीं होगा कि उस एक पल के किस्से ने कितने और आंदोलनकारी किसानों का जोश दोगुना कर दिया होगा।

उस किसान को चिंता होगी तो अपने फसल की, अपने परिवार की और अपने घर की। वह कोई राजनीतिक बंद में हिंसक रूप से प्रदर्शन करता किसी पार्टी का कार्यकर्ता नहीं बल्कि अपने खेत, अपनी रोटी और अपनी फसल के हक की मांग करने वाला एक आम किसान है।

खैर, यह बात तो उसी वक्त साबित हो जाती है, जब उसपर लाठियां बरसाई जाती हैं और आंसू गैस के गोले छोड़े जाते हैं क्योंकि राजनीतिक गुंडों को इन सबका सामना नहीं करना पड़ता, भले ही वो एक फिल्म के चक्कर में पूरा शहर जला दे।

ये किसान हैं, गरीब हैं, अन्नदाता हैं, जिनके पास खुद के खाने को अन्न नहीं है। आखिर इनकी मांगे कैसे नाजायज़ हो सकती हैं।

दिल्ली बॉर्डर पर पुलिस से हाथों-हाथ भिड़ते किसान मुंबई के किसानों की तरह शांतिपूर्ण प्रदर्शन क्यों नहीं कर सकते? हां वो बात और है कि समुद्र किनारे वाले मुंबई की दरियादिली दिल्ली के दिलवालों में नहीं थी इसलिए वो किसानों का खेत छोड़ शहर में आना बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं।

तभी तो टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे उच्च मध्यम वर्गीय मानसिकता वाले अंग्रेज़ी अखबारों ने “किसानों की वजह से शहर जाम” और “प्रदर्शनकारी किसानों की वजह से शहरवासियों को हुई परेशानी” जैसी हेडलाइंस के साथ खबरें छापीं।

खून से लथपथ, नसें चढ़ी हुईं, कमज़ोर किसानी बाजुओं की तस्वीरें जब हमारे स्मार्टफोन्स की स्क्रीन पर आती हैं तो हम अंगूठे को नीला कर नीचे स्क्रोल कर देते हैं। हमें क्या मतलब किसानों से, हम तो अपने-अपने घर के आरामदायक सोफे पर बैठकर यह सोचते रहते हैं कि ये किसान क्यों हर बार शहर में आकर शहरवासियों का जीना मुहाल कर देते हैं।

क्या किसानों को ज़रा भी फिक्र नहीं होती कि उनके आंदोलन से दूसरों को परेशानियों भी होती है? सिर्फ अपने बारे में सोचने के अलावा एक बार हमारे बारे में भी सोच लें तो इनका क्या चला जाएगा?

मगर हम यह क्यों नहीं समझ पाते कि किसान अपने शौक से लाठियां खाने नहीं आते हैं। उनकी तंगहाली उन्हें यहां खींच लाई है और वे अपने हक के लिए लाठियां खा रहे हैं। जब तक वह अपनी फसलों और संसाधनों की आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर लेते हैं तब तक वे लगातार शहर में अपनी धमक महसूस कराते रहेंगे।

सरकार और आमजनों को चाहिए कि किसानों को अपने खिलाफ ना समझें बल्कि आगे बढ़कर उनकी मदद करें। “सबका साथ सबका विकास” को जुमला ना समझें बल्कि उस जुमले को यथार्थ में लाने की कोशिश करें। ताकि धरना प्रदर्शन करते किसान चैन से अपनी खेती-बाड़ी की ओर लौटें और देश के प्रमुख पेशे में अपना महत्वपूर्ण योगदान दें।

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