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“पुलिस की असंवेदशील छवि उनके सकारात्मक कामों को पीछे ढकेल देता है”

पुलिस

बिहार पुलिस

मौजूदा दौर में अपने आत्म-अनुभव से टटोल कर देखूं, तो यह स्पष्ट तौर पर दिखता है कि अपने आस-पास हर सजीव चीज़ के बारे में हमारी जानकारी स्वयं से अर्जित हुई कम और लोगों की सुनी-सुनाई बातों से अधिक है। जब उसके बारे में स्वयं से राय बनाने के लिए अपनी ज़मीन की तलाश में उतरा, तब अनुभव अच्छे-बुरे दोनों ही तरह के देखने को मिले। कभी-कभी परिस्थितियों और पहले से बनाई गई छवियों का प्रभाव इस कदर था कि नकारात्मकता के दबाव में सकारात्मक सोच की तरफ मैं बढ़ नहीं सका।

इन बातों को अगर आज “नेशनल पुलिस डे” के दिन, पुलिस के साथ अपने अनुभवों को देखने की कोशिश करूं, तो यही यथा-स्थिति बनती है। पुलिस के बारे में सिनेमाई छवि से खौफ इस कदर मेरे जे़हन में बैठी हुई थी कि सोचता था पुलिस के सामने कभी आने का मौका ना लगे। कॉलेज के दिनों में एक बार देरी से ट्रेन चलने की वजह से आधी रात को अपने शहर मुज़फ्फरपुर पहुंचा। थोड़े मान-मुनव्ल के बाद जब रिक्शा तैयार नहीं हुआ, तब पैदल ही घर की तरफ बढ़ गया।

कुछ देर चलने के बाद पेट्रोलिंग करती हुई पुलिस की जीप मेरे पास आई और पूछा गया कि इतनी रात कहां से आ रहे हो? मेरे अंदर डर हावी हुआ और बिना जवाब दिए ही कदमों की रफ्तार बढ़ा दी। पुलिस की जीप फिर पास आई और दरोगा साहब उतरकर कहते हैं, कहां जाना है और इतनी रात में आ कहां से रहे हो? मुझे लगा कि अब जवाब दे देना चाहिए और मैंने पहले कारण बताया और फिर घर का पता। उन्होंने कहा, गाड़ी में बैठ जाओ, हमलोग उधर ही जा रहे हैं। मैं अंदर से हक्का-बक्का सा हो गया था लेकिन जीप में बैठ गया और उन्होंने घर तक छोड़ दिया। रास्ते भर यही सोचता रहा कि कहीं कुछ गलत तो नहीं होने वाला है मेरे साथ, मगर कुछ हुआ नहीं, मैं सही-सलामत घर पहुंचा।

ऐसा कतई नहीं है कि पुलिसवालों की सोच भी बिल्कुल सपाट रहती है। किसी भी मामले में उनकी सोच भी पूर्वाग्रहों से प्रभावित होती है। यह इसलिए भी है, क्योंकि पुलिसवाले भी कई मामलों में वस्तुनिष्ठ नहीं हो पाते हैं। जाति, धर्म, वर्ग और जेंडर के मामलों में उनके पूर्वाग्रह उनको कहीं अधिक असंवेदनशील या गैरज़िम्मेदार बनाते है। यह असंवेदशील और गैरजिम्मेदार छवि उनके सकारात्मक कामों को भी पीछे ढकेल देता है।

यह कहना गलत नहीं होगा कि भारतीय सामाजिक संरचना और राजनीतिक गतिशीलता का प्रभाव भारतीय पुलिस की कार्यशैली पर कोई असर नहीं डालती है। एक आम इंसान के तरह उनके भी अपने पूर्वाग्रह हैं, जो उनके साथ चलते हैं। जबकि बतौर प्रशासन उन्हें समाज से अधिक संवेदनशील होने की ज़रूरत है। यह संवेदनशीलता कई बार सुनने को मिलती है जिसकी तारीफ भी होती है, मगर वह क्षणभंगुर ही साबित होती है।

पुलिस को अधिक वस्तुनिष्ठ और ज़िम्मेदार बनाने के लिए ज़रूरी है कि पुलिस ट्रेनिग के दौरान उसको लोकतांत्रिक ज़िम्मेदारियों के प्रति ज़िम्मेदार बनाया जाए, क्योंकि पुलिस के बारे में समाज और लोगों के मन में अजीब सी विरोधाभास की स्थिति बनी हुई है।

एक तरफ जहां समान्य अवसरों पर पुलिस की उपस्थिति का कोई स्वागत नहीं करता वहीं दूसरी तरफ जब लोग कठिनाई में पड़ते हैं, तब बड़ी तीव्रता से उनकी खोज भी होती है।

आज जब पुलिस के बारे में खबरें पढ़ता-सुनता हूं या कभी-कभी पुलिसवालों से उनकी बातें सुनता हूं, तब ज़ेहन में एक विचार बार-बार आता है कि आम नागरिक, वकील, जज, पत्रकार, टीवी एंकर और एनजीओ की तरफ से निंदा झेलने के बाद भी पुलिसवाले अपना काम कैसे करते होंगे? शायद पुलिसवाले मान कर चलते हैं कि सही और गलत दोनों प्रकार की आलोचना होती है।

“निंदक नियारे राखिए” वाला दोहा पुलिस पर कितना फिट होता है यह मालूम नहीं, मगर शायद आलोचनाओं के बीच काम करने की आदत  पुलिसवालों ने विकसित कर ली है। कुछ वरिष्ठ या रिटायर्ड पुलिस अधिकारी की लिखी किताबें यह बताती हैं कि एक नहीं हज़ार तरह के दबाव की राजनीति और सामाजिक पूर्वाग्रह पुलिस के काम करने की कार्यदशा को प्रभावित करती है। इसका दूसरा स्याह पक्ष यह भी है कि पुलिस प्रशासन इन स्थितियों का फायदा अपने पक्ष में भी उठाती है और अपनी ज़िम्मेदारियों से कंधे झटक देती है। एक खोजो तो हज़ार इस तरह के उदाहरण मिलेंगे जहां पुलिस का रवैया पूरी तरह से गैर-ज़िम्मेदाराना रहा है।

अगर यह कहा जाए कि ब्रिटिश दौर में स्थापित भारतीय पुलिस अब तक लोकतांत्रिक परंपरा में कार्य करने की योजना विकसित नहीं कर सकी है, तब अतिशोक्ति नहीं होगी। क्योंकि पुलिस की कार्य संस्कृति उस समाज से दूर ले जाती है जिसकी सामाजिक उत्तरदायित्व को ही पूरा करने के लिए उसका गठन हुआ है। जिसको सही करने के लिए ज़रूरत इस बात कि है कि भारत सरकार को 1861 में बने पुलिस एक्ट में बदलाव या सुधार करना पड़े।

इस एक्ट में पुलिस को दमनकारी होने के बजाए जनलोकतात्रिक मूल्यों पर आधारित विधि का निमार्ण करना होगा, जिसपर पूरे देश की पुलिस सेवा की कार्य-प्रणाली निर्भर है। कई सेमिनारों में और रिटायर्ड पुलिस अधिकारियों द्वारा इस बात का ज़िक्र किया गया है कि अंग्रेज़ों का विकसित किया हुआ पुलिस मार्गदर्शक मौजूदा दौर में पुलिस की छवि को असंवेदनशील बनाता है, जिसमें कहीं भी नहीं लिखा गया है कि पुलिस का पहला दायित्व जनता की सेवा है।

आज आज़ाद भारत में भारतीय पुलिस जनता का वह सेवक है जिसपर उसकी जनता को ही विश्वास नहीं है। राजनीतिक दबाव की तो कोई सीमा ही नहीं है। उससे बेहतर परिणाम की अपेक्षा है, मगर सुविधाओं के नाम पर कार्यों का बोझ इस कदर है कि वह अपने परिवार का सदस्य होकर भी अपने परिवार में नहीं है। तमाम उपेक्षाओं के बाद भी वह सामाजिक ज़िम्मेदारी की ड्यूटी निभा रहा है।

ज़ाहिर है कि पुलिस को अपनी छवि और कार्य स्थिति में सुधार लाने के लिए नया नज़रिया विकसित करना होगा। आधुनिक संसाधन और व्यापक कार्ययोजना के कारण पुलिस सही परिणाम देने में असफल हो रही है।

सामाजिक परिवर्तन के दौर में पुलिस को नियंत्रण तथा समाजीकरण के मात्र प्रतिनिधि के रूप में नहीं बल्कि योजनाबद्ध प्रगति और परिवर्तन की इस प्रक्रिया में एक सक्रिय अंग के तौर पर अपनी भूमिका दर्ज करनी होगी। यह तभी संभव है जब एक तरफ समाज और दूसरी तरफ पुलिस प्रशासन मिलकर इस प्रकार का संयुक्त प्रयास करें। इससे सामाजिक शक्तियों को संतुलित विकास में गति मिलेगी, क्योंकि मौजूदा पुलिस प्रशासन को कम्प्यूटर के बटन के सहारे कंट्रोल ऑल डिलीट नहीं किया जा सकता है, उसको रिबूट करके और बेहतर बनाने की कोशिश की जा सकती है, जिसके लिए समाज और पुलिस को ‘हमकदम’ होना ज़रूरी है।

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