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“क्या नीतीश कुमार अब बिहारी अस्मिता से ऊपर हो गए हैं?”

बिहार में बहार हो, नीतीशे कुमार हो!

तनु वेड्स मनु जैसी फिल्मों में अपनी खूबसूरत लेखनी से कई गाने देनेवाले मधेपुरा निवासी राजशेखर जी की कलम से निकला था ये नारा।

ये नारा 2015 के बिहार विधानसभा चुनावों में खूब चला था। महागठबंधन यानी कि राजद, जदयू और काँग्रेस के संयुक्त रूप से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार थे नीतीश कुमार। पार्टी का दलित चेहरा माने जाने वाले जीतन राम मांझी चुनाव से कुछ ही समय पहले जदयू से टूटे थे। टूटने की वजह बनी नीतीश बाबू का कुर्सी प्रेम। 2014 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा के लहर में जदयू बुरी तरह हार गयी तो कुमार साहब ने राजनीति से सन्यास लेने की बात कर दी और चिंतन करने निकल गए। उस समय पार्टी अध्यक्ष हुआ करते थे शरद यादव। नीतीश जी ने तब कहा था कि वो मिट्टी में मिल जाएंगे पर भाजपा से फिर कभी हाथ नहीं मिलाएंगे।

समय बदला, काल बदला और 2015 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन भारी मतों से विजयी बना। महागठबंधन की सरकार में नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने और राजद से तेजस्वी यादव को उपमुख्यमंत्री पद दिया गया। काँग्रेस को भी योग्यतानुसार (पढ़ें सुविधानुसार) मंत्रालय बांट दिया गया। सबकुछ ठीक चल ही रहा था कि 2017 में समय फिर बदला और अगस्त की शुरुआत में नीतीश जी ने महागठबंधन से नाता तोड़ लिया। कारण बना राजद नेताओं का तथाकथित रूप से भ्रष्टाचार में लिप्त होने का आरोप। खैर, इसके बाद नीतीश जी ने भाजपा के सहारे सरकार बना ली और फिर से मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। नेता विपक्ष बने राजद के तेजस्वी यादव। ये वही तेजस्वी थे, जो कभी नीतीश जी की बगल वाली कुर्सी पर बैठकर उपमुख्यमंत्री पद का दायित्व निभा रहे थें।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि नीतीश कुमार की साफ छवि का फायदा 2015 के विधानसभा चुनाव में भरपूर मिला था। इसी छवि के बल पर नीतीश जी की अंतरात्मा भी जागी थी। इस छवि को बनाने में अहम योगदान था नीतीश जी की “सात निश्चय योजना” का। इन सात निश्चयों में दो निश्चय काफी प्रभावशाली रहें- शराबबंदी और दहेज का विरोध। इसमें भी कोई संशय नहीं है कि इस योजना से जनता में यह सन्देश जाता है कि नीतीश जी महिलाओं के बारे में काफी चिंतित हैं और अन्तरात्मा की आवाज़ पर उन्होंने ये निश्चय किये हैं। अब बात करते हैं इन योजनाओं की-

शराबबंदी

शराबबंदी के लिए बाकायदा कानून लाया गया। पूरे ताम-झाम के साथ मानवश्रृंखला बनाई गई, नतीजा फिर भी सिफर रहा। शराबबंदी के पहले ही हफ्ते में खबर आयी कि ज़हरीली शराब पीने के कारण 22 लोगों की मृत्यु हो गयी। खैर, जनता ने इस फैसले को शुरुआत में खूब सराहा, पर बाद में मालूम हुआ कि असल में शराब की कालाबाज़ारी का धंधा इन सब के बीच चरम पर पहुंच चुका है। कई-कई नेताओं की शराब पीते हुए फोटो और वीडियो खूब वायरल हुई। पटना उच्च न्यायालय ने इस कानून को अवैध करार भी दिया पर नतीश सरकार इस कानून में आमूल-चूल परिवर्तन कर के नया कानून ले आई। इस मामले में आज बिहार में हज़ारों लोग जो गरीब तबके से आते हैं और जमानत नहीं दे सकते, जेल में बंद हैं। जब से ये कानून लागू हुआ है शायद ही किसी अमीर या रसूखदार व्यक्ति को सज़ा हुई है।

दहेज बंदी योजना 

भारत में दहेज लेना और देना एक कानूनी जुर्म है, और ऐसा आज से या नीतीश सरकार के सात निश्चय योजना आने के वर्षों पहले से है। भारत में दहेज प्रथा को प्रतिबंधित करने का कानून 1961 से ही लागू है। पर नीतीश कुमार ने इसे सात निश्चय योजना में शामिल कर के सारी वाहवाही लूटने की कोशिश की। यदि ऐसा नहीं है तो नीतीश जी, जो कानून पहले से है, उसे कड़ाई से लागू करते ना कि इसे कोई नई योजना का नाम दे कर इसका श्रेय लेने की जद्दोजहद में पड़े रहते।

इन्हीं सब चीज़ों के बीच बिहार में टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ (TISS) की टीम आई। TISS की टीम ने मुज़्जफरपुर में बालिका गृह का सोशल ऑडिट किया। सोशल ऑडिट के दौरान ये टीम वहां की बालिकाओं से मिली और बालिकाओं ने जो बताया वो वाकई चौंकाने वाले तथ्य थे। बालिका गृह के संचालक ब्रजेश ठाकुर पर वहां की बालिकाओं ने बलात्कार के आरोप लगाए। अभी कुछ ही दिनों पहले सीबीआई जांच में नरकंकाल भी बरामद हुए, जो उनमें से ही किसी एक मरी हुई बच्ची की थी।

गौरतलब है कि ब्रजेश ठाकुर को नीतीश कुमार का काफी करीबी बताया जा रहा है। इस मामले में बिहार की समाज कल्याण मंत्री मंजू वर्मा के पति का भी नाम उभर कर सामने आया। इन्हीं आरोपों के कारण उन्हें अपने मंत्री पद से इस्तीफा भी देना पड़ा। इस मामले में आगे भी कई बड़े लोगों के नाम सामने आने की पूरी संभावना है। पिछले कुछ महीनों में बिहार में अपराध का स्तर भी काफी तेज़ी से बढ़ा है। आए दिन हत्या और लूटपाट की खबरें अखबारों में छायी रहती हैं।

तभी माननीय उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी अपराधियों से हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए नज़र आते हैं कि वो कम से कम 10 -15  दिन तो कोई अपराध ना करें। अब खुद सोचिए कि क्या किसी उपमुख्यमंत्री को यह शोभा देता है कि वो अपराधियों से हाथ जोड़कर विनती करे? क्या ये मान लेना चाहिए कि बिहार में कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज़ नहीं रह गई?

2015 में भाजपा ने बिहारियों के डीएनए को गाली दी थी और तब नीतीश जी ने ही बिहारी अस्मिता का सवाल बढ़-चढ़ कर उठाया था। आज फिर उसी भाजपा के साथ नीतीश कुमार सरकार चला रहे हैं। असल में बिहार की अस्मिता को असली धक्का तो तब लगा था जब नीतीश कुमार ने जनादेश की आवाज़ को नकार कर के भाजपा के साथ वापस सरकार बना ली थी। मतलब यह कहां का लोकतंत्र है कि जिस पार्टी को जनता ने विपक्ष में बैठने भेजा था आज वो सरकार चला रही है और जिसे सरकार चलाने भेजा था वह विपक्ष में बैठी है।

ऐसा लगता है कि जैसे नीतीश कुमार ये मान कर बैठे हैं कि बिहार के स्थायी मुख्यमंत्री वही हैं और बिहार की जनता उनके अलावा किसी को चुनेगी ही नहीं कभी। पिछले कुछ महीनों में यह सरकार अपने कानून व्यवस्था के काम को दरकिनार कर के जिस तरह से मॉरल पोलिसिंग और इस तरह के बेकार के कामों में लगी हुई है उससे तो यही लगता है कि अब जनता को अपने विकल्प तलाशने शुरू कर देने चाहिए। लोकतंत्र के लिए ये बहुत ज़रूरी है कि लोकमत का सम्मान हो। शासक को हमेशा इस बात का एहसास होना चाहिए कि वो स्थायी पद पर नहीं है, क्यूंकि अगर वो यह बात भूल गया तो लोकतान्त्रिक व्यवस्था का बना रहना काफी मुश्किल होगा।

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