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क्या आदित्य बिड़ला की फूड एंड ग्रॉसरी स्टोर ‘मोर’ का बिकना अर्थव्यवस्था के लिए खतरा नहीं है?

आदित्य बिड़ला

आदित्य बिड़ला

अभी हाल ही में आदित्य बिड़ला समूह ने सुपरमार्केट चेन ‘मोर’ को बेच दिया है। अमेज़न और समारा कैपिटल ने मिलकर ‘मोर’ को खरीदा है। यह सौदा करीब 4200 करोड़ रुपये में तय हुआ, जहां समारा कैपिटल की नई एंटिटी में 51 फीसदी हिस्सेदारी रहेगी, वहीं अमेज़न की 49 फीसदी।

पिछले वित्तीय वर्ष भारतीय बाज़ार में 1000 से भी अधिक कंपनियों का विलय और अधिग्रहण हुआ है। एक्सिस बैंक- फ्रीचार्ज, फ्लिपकार्ट -ईबे, एयरटेल- टेलीनॉर और टेक महिंद्रा-सीटीएस सॉल्यूशंस जैसे कई उदाहरण हैं जो विलय तथा अधिग्रहण की कहानी बताने के लिए काफी हैं।
आखिर ऐसी क्या वजह है कि अकेले अपने दम पर खड़ी इन कंपनियों को एक बेहतर बाज़ार होने के बावजूद भी अपने अस्तित्व के लिए विलय या अधिग्रहण का सहारा लेना पड़ रहा है।

रुपये की खस्ता हालत, जीएसटी तथा नोटबंदी के तय लक्ष्यों को हासिल ना कर पाना, NPA में अप्रत्याशित वृद्धि तथा कंपनियों का बढ़ता घाटा जैसी कई समस्याओं की वजह से आने वाले समय में भारत की आर्थिक स्थिति पर काले बादल छा सकते हैं।

लोगों को लगता है कि सरकार तथा बाज़ार दोनों अलग-अलग चीजें हैं जिनका विलय नहीं हो सकता लेकिन वास्तविकता इससे कोसों दूर है। बाज़ार में होने वाली तमाम गतिविधियों पर सरकार की पैनी नज़र होती है और सरकार के हर फैसले से बाज़ार पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष असर अवश्य ही पड़ता है। सरकार भी बाज़ार पर नियंत्रण का हर संभव प्रयास करती है। इन प्रयासों में सबसे अधिक भूमिका सरकार द्वारा निर्मित उन संस्थाओं या प्राधिकरणों की होती है जिनका निर्माण अलग-अलग व्यापारिक क्षेत्रों में संतुलन या पर्यवेक्षण के लिए सरकार करती है।

अगर ज़मीनी हकीकत की बात करते हुए व्यापारिक वर्ष 2017-18 को ही आधार माने, तब इस वर्ष 17 लाख पंजीकृत कंपनियों में प्रतिस्पर्धा के आंकड़े काफी आश्चर्यजनक और निराशापूर्ण नज़र आते हैं। कार, कंप्यूटर ,फार्मास्यूटिकल तथा मोबाइल ही वो क्षेत्र बचे हैं जहां चार या उससे अधिक कंपनियों में प्रतिस्पर्धा है।

इसके अलावा म्यूचुअल फंड, टेलीकॉम, पेट्रोलियम, E-कॉमर्स, विमान सेवाएं, स्टील, दोपहिया वाहन, प्लास्टिक रॉ-मेटेरियल , एल्युमीनियम, ट्रक और बसें, कार्गो, रेलवे, कोयला, सड़क परिवहन, तेल उत्पाद, बिजली वितरण, इत्यादि ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें मुनाफा तो बहुत है मगर प्रतिस्पर्धा के नाम पर सिर्फ एक से तीन कंपनियां ही सक्रिय हैं।

घटती प्रतिस्पर्धा की मार ने वर्ष 2017 में 2 लाख 24 हज़ार कंपनियों को बंद होने के लिए विवश कर दिया। क्या यह भारतीय अर्थव्यवस्था के भविष्य के लिए अच्छे संकेत हैं? टेलीकॉम क्षेत्र में बीएसएनल के घटते तथा रिलायंस समूह के जिओ के बढ़ते वर्चस्व को देखकर अब लगने लगा है कि अन्य कंपनियां केवल अपने अस्तित्व की चिंता में ही लगी है, मुनाफा तो दूर की बात है।

भारतीय बाजार में विदेशी मुद्रा का सामान्य से अधिक निवेश भी भारतीय मुद्रा के गिरने का एक मुख्य कारण है। आयात-निर्यात अनुपात का असामान्य होना, 8 से 10 भारतीय कंपनियों का ही बाज़ार पर स्वामित्व तथा सरकार का व्यापारियों की गोद में बैठना वे प्रमुख कारक हैं जो भारतीय अर्थव्यवस्था को भविष्य में एक गहरी खाई में धकेल सकते हैं।

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