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आखिर खेती करने वाले किसान को लाठी उठाने की नौबत क्यों आई?

किसान आंदोलन और मोदी सरकार में किसानों की स्थिति और उनकी मांग

2 अक्टूबर यानि गांधी जयंती, अहिंसा के सबसे बड़े पैरोकार का जन्मदिन और जो अन्नदाता का बहुत सम्मान भी करते थे। कल भी वही दिन था, उसी अहिंसावादी का जन्मदिन लेकिन कल जो घटना घटी वह उस महापुरुष का अपमान तो है ही साथ ही जनता और जनभावना का अपमान भी है।

जो देश को अनाज देने के लिए बिना धूप-छांव देखे, बिना बारिश-बिजली देखे खेत में जुटा रहता है, अगर वह कोई बात लेकर, कोई मांग लेकर सरकार के प्रतिनिधियों से मिलना चाहता है तो इसमें गुनाह क्या है? क्या ये इतना बड़ा गुनाह है कि उसको राजधानी में घुसने तक ना दिया जाए और उसपर लाठियां और आंसू गैस के गोले बरसाए जाएं?

सरकार चाहे जितने अहिंसा दिवस मना ले लेकिन अगर ये बातें व्यवहार में नहीं हैं तो उनका कोई मतलब नहीं। एक तरफ पुलिस किसानों पर लाठीचार्ज कर रही थी और दूसरी तरफ राजघाट पर और तमाम जगह प्रधानमंत्री और मंत्रीगण गांधी जी को श्रद्धांजलि दे रहे थे। उनपर फूल ना भी चढ़ाते तो वे नाराज़ ना होते लेकिन अगर इन किसानों से मिलकर उनकी बातें सुन लेते और आपसी सहमति से निर्णय लेते तो शायद उनकी सच्ची श्रद्धांजलि होती।

आखिर सरकार को ये किसने अधिकार दिया कि वो किसानों पर लाठी बरसाए। क्या वे हिंसा कर रहे थे, क्या वे दंगे करने आए थे, जो उन्हें रोका गया? इतना सब होने के बाद बातचीत कर भी ली तो क्या मतलब। यही करना था तो पहले ही कर लेते जिससे इसकी नौबत ही ना आती।

इस आंदोलन की एक तस्वीर इंटरनेट पर वायरल हो रही है, जिसमें एक बुज़ुर्ग किसान हाथ में लाठी लिए सामने से लाठी भांज रहे सुरक्षाकर्मियों से भिड़ रहा है। इस तस्वीर में उस किसान के चेहरे पर कोई डर नहीं है। यह तस्वीर बहुत कुछ एक साथ कह देती है।

एक बात तो यह कि हल थामने वाले हाथ सत्ता की लाठी से नहीं डरते और ज़रूरत पड़ने पर लाठी उठा भी सकते हैं और दूसरी सोचने वाली बात यह है कि उन्हें लाठी उठाने की नौबत ही क्यों आई?

ये बड़े शर्म की बात है क्योंकि किसानों की कोई आकांक्षा ऐसी नहीं है, कोई मांग ऐसी नहीं है जो मानने लायक ना हो। अगर हमें ऐसी तस्वीर देखनी पड़ रही है तो यह सोचने वाली बात है कि सरकार जब किसानों की बात नहीं सुन सकती, उनसे मिल नहीं सकती, तो फिर किस बुनियाद पर कृषि प्रधान देश होने का घमंड लिए घूमती है?

जिस दिन इन किसानों की लाठी सही से भांजेगी, उस दिन सरकार चारों खाने चित्त हो जाएगी। सुरक्षाबल सिर्फ आंदोलनों को रोकने के लिए ही नहीं हैं, लोगों की सुरक्षा के लिए भी हैं। उनसे वही काम करवाया जाए और लाठी के बदले बातचीत में ज़्यादा विश्वास हो तो बेहतर है। नहीं तो ये सत्ता भी अस्थाई नहीं है ये ना भूले सरकार।

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फोटो स्त्रोत- फेसबुक

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