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क्या गीतकार शैलेन्द्र को बॉलीवुड में छुपानी पड़ी थी अपनी दलित पहचान?

शैलेंद्र एक दलित समुदाय से आते थे इसके बारे में पहली बार राज्यसभा टीवी के ‘मीडिया मंथन’ की एक डिबेट से पता चला जब एक पैनलिस्ट ने इस बात का ज़िक्र किया।तब सोचा कि मैं कितना अनभिज्ञ हूं जो इस बात का मुझे पहले से पता नहीं था। जब इस बारे में गूगल किया तब पता चला कि मैं अकेला ऐसा नहीं हूं।

दरअसल शैलेन्द्र के दलित होने की बात पहली बार सार्वजनिक तौर से सामने तब आयी जब उनके बेटे दिनेश शंकर शैलेंद्र ने अपने पिता की कविता संग्रह “अंदर की आग” की भूमिका में ये बात बताई। हालांकि ये बात बहुत से लोगों को नागवार भी गुज़री। अजीब बात है ना जब लोग अपने ब्राह्मण राजपूत होने की बात सीना ठोक कर बताते हैं तो सबको नॉर्मल लगता है लेकिन जब कोई दलित अपनी आइडेंटिटी असर्ट करता है तो उसे जातिवाद का नाम दे दिया जाता है।

शैलेन्द्र का असली नाम शंकरदास केसरीलाल था। उन्होंने सिनेमा में आने के लिए अपना तखल्लुस इस्तेमाल किया। दलितों या मुसलमानों को उस वक्त बॉलीवुड में सफल होने के लिए अपने नाम से अपनी पहचान छुपानी पड़ती थी ये बात भी गौर करने के लायक है। बहरहाल शैलेन्द्र की पहचान की बात करें तो वो मूल रूप से बिहार के आरा के धूसपुर गांव के चमार समुदाय से आते थे। उनका परिवार यहां से पलायन कर के रावलपिंडी गया था जहां शैलेन्द्र का जन्म हुआ। उनके पिता की तबियत खराब होने पर वो लोग मथुरा में उनके चाचा के पास आये। मथुरा से ही शैलेन्द्र ने पढ़ाई की। शुरुआती दिन मुफलिसी में गुज़रें जहां इलाज के पैसे ना होने की वजह से उनकी एकलौती बहन की मौत हो गयी। बचपन में शैलेंद्र हॉकी खेला करते थे लेकिन साथ खेलने वाले लड़के उनकी जाति को लेकर बुरा व्यवहार करते थे तो उन्होंने खेलना ही छोड़ दिया। पढ़ाई पूरी कर के वो बम्बई गए जहां राज कपूर से मिलना हुआ फिर उस दोस्ती से जन्मी राज कपूर और शैलेन्द्र की जोड़ी ने कितने खूबसूरत गीत दिए वो तो इतिहास में भली भांति दर्ज है ही।

अब आप में से कई लोग, खास कर के सवर्ण, यह कहेंगे कि शैलेंद्र की जाति पे बात करनी ज़रूरी क्यों थी। ये ज़रूरी इसलिए थी कि भले ही जाति-व्यवस्था एक दमनकारी और अत्याचारी व्यवस्था है लेकिन ये हमारे समाज का एक सच है। दलित या सवर्ण होना किसी व्यक्ति के जीवन पर, उसकी सोच पर उतना ही असर डालता है जितना कि उसका अमीर या गरीब होना। मेरा हमेशा से ये मानना रहा है कि किसी साहित्यकार और खासकर के कवियों की रचनाओं को सही से समझने के लिए हमें उनके बारे में जानना बेहद ज़रूरी होता है। इससे हमें यह समझने में मदद मिलती है कि उसके मन में ये विचार कहां से आ रहे हैं। जावेद अख्तर का एक कम्युनिस्ट प्रभाव वाले मुस्लिम परिवार में पैदा होना, साहिर के पिता का उनके जान का दुश्मन होना, गालिब का अकेला होना जब यह सब कोई छुपा हुआ रहस्य नहीं है तो शैलेन्द्र के दलित होने की पहचान को छुपाना क्यों ज़रूरी है?

एक और वजह जो सबसे ज़रूरी है वो है शैलेंद्र को एक दलित हीरो के रूप में स्थापित करना। दलित युवक युवतियों के पास रोल मॉडल्स की भारी कमी है। उसके पास ऐसे प्रेरणास्रोत बहुत कम हैं जो उसे सपने देखने का हौसला दें। दलित होना और महत्वाकांक्षी होना इस देश में अभी भी मामूली बात नहीं है। सदियों से जिन्हें दबाया गया है उनके सर उठाने से डरना लाज़िम है। ये दलित किसी सवर्ण को अपना रोल मॉडल नहीं बना सकते क्योंकि दोनों के स्ट्रगल अलग-अलग होते हैं। ऐसे में उसके पास हमेशा एक डर रहेगा कि सफल होने के लिए ऊंची जाति का होना अनिवार्य है। इस डर को मिटाने के लिए ज़रूरी है ऐसे उदाहरण का होना जिसकी चुनौतियों से दलित खुद को रिलेट कर पाये और जिसकी सफलता उसे हौसला दे।

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