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‘शराब ना पीने वाली’ और ‘नॉन फेमिनिस्ट’ दुल्हन की यह कैसी तलाश?

Matrimony Advertisement

बिज़नेसमैन द्वारा शादी का विज्ञापन

अभी हाल ही में एक अंग्रेज़ी अखबार में प्रकाशित एक वैवाहिक विज्ञापन अपने विवादास्पद कंटेट की वजह से सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बना रहा। मैसूर के बिज़नेसमैन द्वारा प्रकाशित इस विज्ञापन में लिखा गया है, “मैसूर का रहने वाला एक 37 वर्षीय बिज़नेसमैन एक शराब ना पीने वाली और नॉन फेमिनिस्ट दुल्हन तलाश रहा है।” विज्ञापन में आगे और भी अजीबो-गरीब तरह की बातें कही गई है जिसकी वजह से मैसूर के बिज़नेसमैन सोशल मीडिया पर काफी ट्रोल हुए।

गौरतलब है कि बीबीसी की संवाददाता मेघा मोहन ने इस विज्ञापन की पेपर कटिंग को ट्विटर पर शेयर करते हुए लिखा, “यह विज्ञापन ‘द हिंदू’ अखबार में प्रकाशित हुआ था। इस विज्ञापन में लिखा गया है, मैसूर के रहने वाले स्नातक उद्योगपति का खुद का अंतरराष्ट्रीय निर्यात कारोबार है। वह ऋग और अथर्व वैदिक की योद्धा पृष्ठभूमि वाली क्षत्रिय जाति से हैं। इस वक्त उनकी सैलरी आठ अंकों में है। 37 साल के स्नातक एक आकर्षित दुल्हन तलाश रहे हैं। जो उच्च आकांक्षा रखती हो और 26 वर्ष से कम आयु अनिवार्य है।”

इस विज्ञापन की अंतिम लाइनों ने खासतौर पर लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा है जहां लिखा गया है, “दुल्हन स्मॉकिंग ना करती हो, फैमिनिस्ट ना हो, वह एक अच्छी कूक हो और उसकी पहले ना तो शादी हुई हो और ना ही बच्चा हुआ हो। जाति, पंथ, धर्म और राष्ट्रीयता की बाध्यता नहीं है और ना ही कोई दहेज की आवश्यकता है।” जैसे ही विज्ञापन की तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हुई लोगों ने उद्योगपति को जमकर खरी-खोटी सुनाई है।

बिज़नेसमैन द्वारा प्रकाशित वधू की तलाश वाला अनोखा विज्ञापन

इस महान व्यक्ति ने विज्ञापन में एक-एक कर जो अपनी मांगे रखी है, उसको यदि गौर से देखा जाए तब हम पाएंगे  कि पहली पंक्ति बेहद साधारण है जिसमें महाशय अपने बिजेनस का ब्यौरा देते हैं। फिर खुद को क्षत्रिय बताकर 8 फिगर में सैलरी का बखान कर अपनी होने वाली पत्नी को सब कुछ सच-सच बता देना चाहते हैं।

पत्नियों के खौफ से जहां लोग 1 लाख की सैलरी को 80 हज़ार बताते हैं, वहीं ये साहब बेहद ईमानदार हैं। नॉन स्मोकर से मतलब शायद स्वास्थ्य की तरफ है। नॉन-फेमिनिस्ट दुल्हन हों इनकी, लोगों के हिसाब से यह एक सिंपल स्टेटमेंट है क्योंकि बेचारा आदमी रोज़मर्रा की बहस से बचना चाह रहा है। गुड कूक से मतलब यह निकलता है, कमा बेशक़ करोड़ो में रहे हो लेकिन खाना तो भैया घर का ही होना चाहिए।

शादीशुदा ना हो लड़की, इससे मतलब साफ है कि साहब पहले बच्चे और पहले पति की परेशानी मोल नहीं लेना चाहते, वो तो शुक्र है, ‘वर्जिनिटी’ जैसे शब्द का प्रयोग नहीं हुआ, बेशक़ मतलब वही निकलता हो। कास्ट से कोई मतलब नहीं, यहां पर भी अपनी महानता का बखान किया गया है। धर्म और नैशनैलिटी से भी कोई मतलब नहीं। कोई दहेज नहीं, मतलब महान समाज सुधारक।

अब मैं ज़रा विज्ञान का हवाला देना चाहूंगी, जब ज़िक्र शिशु के लिंग का आता है तो 2 क्रोमोज़ोम्स की बात होती है – X और Y। हम पाते हैं कि XX का जोड़ स्त्री रूप लेती है और XY का जोड़ मर्द का। ध्यान देने योग्य बात यह है कि हर मर्द में ज़रा सी स्त्री का होना थोड़ा करुणा का होना तो स्वाभाविक है। फिर इतनी नकारात्मकता और नासमझी एक स्त्री के लिए एक मर्द की तरफ से क्यों? केवल स्वामित्व भावना और अधिकार के लिए?

महिलाओं के प्रति उत्पीड़न, उनकी हत्यायें, घाव, अवसाद और ऐसी तमाम बीमारियों के इलाज के लिए एक शब्द का जन्म होता है, जिसे ‘नारी-सशक्तिकरण’ कहा जाता है। नारी-सशक्तिकरण की प्रक्रिया जब कमज़ोर पड़ने लगी तो उसको बचाने के लिए नारीवाद के नारे लगने शुरू हुए और परुष प्रधान समाज ने इसको पुरुषों का भक्षक समझ इसको दुत्कारना शुरू किया। आज भी समाज इसी को मानता चला आया है।

यहां ‘नॉन-फेमिनिस्ट’ वाले बिंदु को उठाया जा रहा है क्योंकि अन्य बातों संग समझौता मुमकिन है। नॉन-फेमिनिस्ट से क्या मतलब समझ आता है? दुबक कर घर के किसे कोने में पड़े रहना? आदेशों को मानना? पुरूष प्रधानता स्वीकारना?अपने लिए आवाज़ ना उठाना? और वो भी इस आधुनिक युग में? जहाँ खुद को मॉडर्न-मॉडर्न कह कर हम चिल्लाते है और इतराते हैं? जहां आज भी यही सोच है कि औरत चूल्हे-चौके तक ही रहे।

सवाल यह भी है कि इस विज्ञापन में लड़की के शैक्षिक योग्यता का ज़िक्र क्यों नहीं किया गया? उसके रुचि और सपनों के बारे में उसे आश्वस्त क्यों नही कराया गया? उसका विवाह के लिए रूप और रंग ही मोहक क्यों होना चाहिए? क्या विवाह महज़ एक सौदा है तीखे नैन-नक्श और कुंवारेपन का? आज के दौर में शादी का यह विज्ञापन महिलाओं के प्रति पुरुषों की तंग मानसिकता को दर्शाता है।

ऐसे तमाम प्रश्नों से बंधे और सोच से ग्रसित युवा आगे की पीढ़ी की नींव भी ऐसे ही रखेंगे और कभी ना खत्म होने वाला यह प्रक्रिया चक्र इसी तरह चलता रहेगा।

एक स्त्री जब लड़ते-लड़ते थक जाती है तब उसके पास पितृसत्ता को स्वीकारना और उसे आगे बढ़ाना एक मात्र विकल्प बचता है। पितृसत्ता की संकल्पना परवरिश में भी दिखाई पड़ती है और यह कभी ना खत्म होने वाला प्रक्रिया मात्र बनकर रह जाता है।

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