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‘मिड डे मील’ में दाल कम और पानी अधिक वाला हिसाब कब तक चलेगा?

मीड डे मिल

मीड डे मिल खाते बच्चे

सुबह जब मैं अखबार पढ़ रहा था तब मेरी निगाहें एक ऐसी खबर पर आकर अटक गई जिसके बारे में मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। वो खबर सरकारी स्कूलों में होने वाले घोटालों के बारे में थी। बहुत सारे सवाल मेरे ज़हन में उठने शुरू हो गए कि हमें सरकारी स्कूलों में आखिर भेजा क्यों जाता है। जब स्कूलों की हालत ही खराब है फिर ये  बच्चों का भविष्य कैसे सवारेंगे।

सुबह ऑटो से स्कूल जाने के दौरान जब मैं हाथ में किताब लेकर स्कूल जाते बच्चों को देखता था, तब ज़हन में यही बात आती थी कि अभाव के कारण इन्हें प्राइवेट स्कूलों में नहीं भेजा जाता है। मगर सरकारी स्कूलों में इनका भविष्य सवारने के बजाए इनके साथ खिलवाड़ किया जाता है।

तमाम नेताओं की ओर से योजनाओं का हवाला देकर गरीबी मिटाने के दावे किए जाते हैं। मैं उन नेताओं से कहना चाहूूंगा कि माननीय महोदय जी, आपने गरीबों को झूठ का सपना दिखाकर उनकी मेहनत को लूटा है। आप शायद भूल रहे हैं कि आज आपका ओहदा जो भी है, इसी जनता की वजह से है।

सत्ताधारियों ने ज्ञान के मंदिर को व्यापार का मंदिर बना दिया है। उन्हें इस बात की कोई फिक्र नहीं कि सरकारी स्कूलों में कितने बच्चे पढ़ने जाते हैं या वहां ढंग से पढ़ाई होती भी है या नहीं। यहां तक कि जिस ‘मिड डे मील’ को लेकर सरकारें अपनी सफलताओं का बखान करती है, वह खुद ही सवालों के घेरे में है।

अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के मेरठ से मिड डे मील का एक मामला प्रकाश में आया है जहां पड़ताल के बाद ये बात समने आई कि भोजन स्कूल में नहीं बलते ब्लकि खुले ऑटो में बाहर से लाए जाते हैं। इसके अलावा दाल में पानी और एक ही थाली में तीन बच्चों के खाने की बात सामने आई है। कई दफा ‘एमडीएम’ के चावल चोरी का मामला भी सामने आया है। ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि मिड डे मील के आड़ में भ्रष्टाचार हो रहा है।

विडंवना यह है कि सरकारी स्कूल तो हैं मगर पढ़ाई नहीं होती, कहने को मिड डे मील योजना तो है मगर खाने के लायक नहीं। आज देश तरक्की की राह पर आगे बढ़ने के लिए संघर्ष इसलिए कर रहा है, क्योंकि देश की शिक्षा व्यवस्था अच्छी नहीं है। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में आए दिन ताले लगे रहते हैं।

शिक्षकों को पता होता है कि किस दिन जांच की टीम आने वाली है और दिलचस्प है कि उस रोज़ स्कूल खोल दिए जाते हैं। फिर तो वही बात हो गई कि स्कूलों में भी अब माफियाओं का बोलबाला होने लगा है।

क्या हम ऐसे भारत का निर्माण नहीं कर सकते जहां सरकारी स्कूल पर्याय बन जाए। उम्मीद करता हूं, जब मैं अगली बार ऑटो में बैठकर स्कूल जाऊं तब वो बच्चे हाथ में किताबें लेकर ना दिखे, बल्कि उनके पास भी एक अच्छी सी स्कूल बैग हो, अच्छे कपड़े हो और सबसे बड़ी बात प्राइवेट और सरकारी स्कूलों के बीच कोई अंतर ना रह जाए। मैं यह दावा तो नहीं कर सकता कि हिन्दुस्तान में ऐसी चीज़ें होंगी लेकिन हां दिल में एक उम्मीद ज़रूर है कि शिक्षा के क्षेत्र में बड़ी क्रांति आने वाली है, जब बच्चे मिड डे मील के नाम पर स्कूलों में नहीं आएंगे बल्कि पढ़कर कुछ कर गुज़रने की जुनून के साथ स्कूल जाएंगे। इसके लिए सरकार को राजनीति से उपर उठकर कोई ठोस पहल करने की ज़रुरत है।

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