Site icon Youth Ki Awaaz

आंदोलन और कड़े कानूनों से बलात्कारियों को आखिर फर्क क्यों नहीं पड़ रहा?

बलात्कार की घटनाओं के खिलाफ प्रदर्शन

बलात्कार की घटनाओं के खिलाफ प्रदर्शन

बलात्कार की घटनाओं के विरोध में पता नहीं कितनी बार लोग मोमबत्ती जलाकर सड़कों पर उतरे होंगे लेकिन अभी भी सच यही है कि भारत में किसी ना किसी के साथ हर 13 मिनट में बलात्कार होता है। इतना हीं नहीं, हर रोज़ 6 मासूम बच्ची के साथ बलात्कार किया जा रहा है। आंकड़ों की माने तो मासूमों के साथ होने वाले इस अपराध में 82 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।

NCRB के 2016 के आंकड़ों के अनुसार रोज़ाना 106 महिलाओं के साथ बलात्कार किया जा रहा है। इस जघन्य अपराध में शामिल होने वाले अपराधियों में से 94.6 % अपराधी कोई और नहीं बल्कि सर्वाइवर का भाई, पिता, संबंधी या फिर जान पहचान वाले होते हैं ।

ऐसे में मैं यही सोचता हूं कि जब अपने ही हैवान बन जाएं तब किस पर भरोसा किया जाए और साथ किसके रहा जाए। सज़ा किसको दी जाए और अपराध कैसे कम किया जाए। निर्भया की घटना के बाद लगा था कि अब देश में ऐसी चीज़ें नहीं होंगी लेकिन कुछ भी नहीं बदला। आंदोलन और कड़े कानूनों से भी हैवानों को कोई फर्क नहीं पड़ा।

क्या वाकई में कानून बनाने से इस अपराध को रोका जा सकता है? ऐसी बात नहीं है कि कानून बनने के बाद से कोई बदलाव नहीं आया लेकिन हमें यह समझना पड़ेगा कि दिक्कतें कहां पर हैं और उसका हल क्या होगा।

पुरुष प्रधान देश की मानसिकता को अभी तक हम भुला नहीं पाए हैं। हमारे मन में जिस अहंकार ने घर कर लिया है उसे त्यागने के लिए हमें अपने संस्कारों को समझने की ज़रूरत है। इसके इतर एक सच्चाई यह भी है कि अपने संस्कारों को समझने के लिए वक्त किसी के पास नहीं है। समय तेज़ी से बदल रहा है और समय के अनुसार लोग भी  बदल रहे हैं लेकिन हमें यह भी स्वीकारना होगा कि हम सही तरीके से इस बदलाव का उपयोग नहीं कर रहे हैं।

सोचने योग्य बात यह भी है कि आज हम उस महिला की आत्मा को समझने में विफल रहे हैं जिसके अंदर भी परमात्मा का निवास है। हम अपने आप को यह समझाने में विफल रहे हैं कि एक महिला को किस तरीके से सम्मान दिया जाना चाहिए। अगर अपने जान पहचान के लोग ही इस अपराध में शामिल हैं, तब मतलब साफ है कि स्थिति काफी गंभीर है। हमे जीवन जीने का जो भाग्य प्राप्त हुआ है, उसके साथ हम इंसाफ नहीं कर पा रहे हैं।

हर घर में यह शिक्षा देनी चाहिए कि एक महिला के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। हमें इस सोच को भी बदलने की ज़रूरत है कि किसी भी महिला को देखकर हम उसे घूरने क्यों लगते हैं। इस बात को ज़िम्मेदारी से समझने की ज़रूरत है कि किसी भी महिला पर आपका अधिकार नहीं हो सकता।

विज्ञापन और फिल्म जगत को भी यह समझना होगा कि महिला को किसी वस्तु की तरह उपयोग करने की नहीं, बल्कि उन्हें सम्मान देने की ज़रूरत है, क्योंकि समाज का एक बड़ा तबका आज भी फिल्मों से सीखता है।

जब तक महिलाओं के प्रति लोगों की मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक आपराधिक मामलों में भी कमी नहीं आएगी। इस सोच को बदलने के लिए आवाज़ अपने-अपने घरों से ही बुलंद करनी होगी, क्योंकि घटना हो जाने के बाद कानून सज़ा दे सकती है लेकिन घटना को होने से रोक नहीं सकती।

Exit mobile version