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“सरकार के पास पूंजीपतियों की कर्ज़ माफी के लिए धन है और किसानों के लिए बस जुमले”

तस्वीरें क्या कुछ बयां नहीं करती और उस तस्वीर को तारीख की लेंस से देखें तो वो धुंधली तस्वीर और भी साफ नज़र आती है। कुछ देर के लिए ही सही ज़रा 2 अक्टूबर के चश्मे को अपने चेहरे पर लगाइए, आपको हिंदुस्तान की मौजूदा झांकी स्पष्ट दिखाई देगी, जो 15 अगस्त और 26 जनवरी को गुज़रती है।

जब आप अपनी आंखों से वही देखते हैं, कानों से वही सुनते हैं, जो बुर्जुआ संचार तंत्र समाचार की नकाब में एक मिथक का प्रचार प्रसार निर्लज्जता से सरेआम करता है, जो रोज़ किसी मजलूम की लाशों से रक्त पीता हुआ उसकी हत्या को जायज़ करार कर नागरिकों को गुलाम बनाने की कवायद में लगा है। तब ज़रूरत है कि हम वो पट्टी अपनी आंखों से उतार फेंके जो महाभारत में गांधारी ने उतारने की ज़हमत नहीं उठाई।

ज़रा इस चश्मे से मौजूदा हालात को दखने का प्रयास कीजिए, जहां किसानों की बदहाली पर शासन कोड़े बरसाता नज़र आता है, जहां देश का अन्नदाता ही अपने अन्न के लिए शासन से संघर्ष कर दम तोड़ता नज़र आता है। सत्ता के अहंकार में चूर निरंकुश शासक किसानों के पसीने से सींचा हुआ अन्न ग्रहण कर उसके ही लहू से सत्ता की फसल सींच रहा है।

ऐसे हालात में ये तारीखें हमें अपने ज़हन में जमाने की ज़रूरत है। इतिहास के पन्नों को पलटे तो हमें नज़र आता है कि गांधी का चंपारण सत्याग्रह जिसकी 100वीं वर्षगांठ हमने पिछले साल बड़ी धूमधाम से मनाई परंतु उसका मर्म नहीं पहचान सके।

सन् 1917 बिहार का चम्पारण ज़िला, हज़ारों भूमिहीन मज़दूर एवं गरीब किसान खाद्यान के बजाय नील और अन्य नकदी फसलों की खेती करने के लिये बाध्य किए गए थे। अंग्रेज़ों और बागान मालिकों के हाथों किसानों का निरंकुश दमन और उत्पीड़न जारी था। नील के बाज़ार में गिरावट आने से कारखाने बन्द होने लगे। अंग्रेज़ों ने किसानों की मजबूरी का लाभ उठाकर लगान बढ़ा दिया, जिसके फलस्वरूप उनमें गहरे असंतोष और विद्रोह की भावना जागी।

उसी बीच एक हाड़ मांस सा व्यक्ति बिल्कुल निर्भीकता के साथ उनके बीच उनकी व्यथा से अवगत होने पहुंच गया चम्पारण। बस यहीं से एक अहिंसक प्रतिरोध की परंपरा की नींव रखी गई, जिसने दमनकारी अंग्रज़ों की जड़ों को भी हिलाकर रख दिया। गांधी की आलोचना करने में कोई बुराई नहीं है, उनके सिद्धान्तों से सहमति-असहमति रखने का हमें पूरा अधिकार है बशर्ते हम गांधी को सोशल मीडिया की बजाए इतिहास में तलाशे एवं अपने अध्ययन की बुनियाद पर अपनी समझ इस विषय पर विकसित करें।

मौलिक सवाल ज्यों-का-त्यों खड़ा है। 2 अक्टूबर, जिसे सारा विश्व अहिंसा पर्व के तौर पर मना रहा था विडंबना देखिए उसी दिन गांधी के मुल्क में किसानों के हिंसक दमन से ज़मीन लाल हो रही थी, जिनके अधिकारों के लिए गांधी ने सत्याग्रह किया। ये तस्वीरें किसी भी संजीदा नागरिक को शर्मिन्दा करने के लिए पर्याप्त हैं।

याद कीजिए उसी दौर में भगत सिंह ने HSRA (हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन) के गठन के दौरान फिरोज़शाह कोटला में देशभर से जुटे क्रांतिकारियों को क्या पैगाम दिया था,

देश से गोरे अंग्रेज़ चले जाएंगे और अगर व्यवस्था में परिवर्तन ना आई तो उनकी जगह पर भूरे अंग्रेज़ सत्ता पर काबिज़ होंगे।

यह कोई नस्लभेदी टिप्पणी नहीं थी, गोरे और भूरे रंगों के दरमियां उनका ये साफ मत था कि अगर देश में समाजवाद नहीं आया तो देश में किसानों और मज़दूरों के हालात यथा स्थिति वही बने रहेंगे और तख्त पर जो भी शख्स बैठेगा उसके विचार भी अंग्रेज़ों की उपनिवेशवादी एवं दमनकारी नीतियों का ही अनुसरण कर उन्हीं के अनुगामी होंगे।

क्या ये बातें आज के परिपेक्ष में सार्थक नहीं हैं? हमने संविधान की प्रस्तावना में तो समाजवाद को स्थान प्रदान कर दिया पर मुल्क में नहीं और आज परिस्थितियां कमोबेश वही हैं जिसकी आशंका भगत सिंह ने 9 दशक पहले ही जताई थी।

क्या मौजूदा निज़ाम को अंग्रेज़ों के समकक्ष बैठाना अनुचित होगा? बिल्कुल नहीं। जब बुर्जुआ लोकतंत्र की भी हत्या सरेआम हो रही है, तो समाजवादी लोकतंत्र की परिकल्पना करना भी अजीब सा लगता है।

आंकड़ों की ओर गौर करें तो हम पाएंगे पिछले 20 सालों में 3 लाख किसानों ने आत्महत्या की है, जिसका कारण है कर्ज़ ना चुका पाने की स्थिति में हो रही बदहाल आर्थिक दशा, जिसके चलते घर बार, खलिहान सब बिक जाना। एक खूबसूरत भविष्य का ख्वाब कर्ज़ के बोझ तले टूट जाना, अपनी अगली पीढ़ी के लिए एक सुरक्षित कल ना सुनिश्चित करने की ग्लानि।

ग्रामीण भारत में आज भी ज़मीन इंसान के स्वाभिमान से जुड़ी होती है और जब कर्ज़ की जद में आकर ज़मीन ही बिक जाए तो पेट की भूख से ज़्यादा आघात आदमी के आत्मसम्मान पर होता है। आत्मग्लानि और क्षोभ युक्त मनुष्य पश्चाताप की अग्नि कुंड में जलकर निश्चित ही भस्म होगा परंतु क्या स्वयं वही इसका उत्तरदायी है, सरकारें नहीं जिन्होंने कृषि प्रधान देश में किसान बदहाली को कभी संजीदगी से स्वीकार ही नहीं किया?

हमारे पास पूंजीपतियों की कर्ज़ माफी के लिए धन है किसानों के कर्ज़ों के लिए लाखों जुमले और बहाने। समाज में उत्पन्न परस्पर विरोधाभासी स्थिति के दर्शन आप स्वयं ही पा सकते हैं बशर्ते आपकी आंखें खुली हों।

बैंको में नॉन परफार्मिंग एसेट में लगातार हो रही वृद्धि और दूसरी तरफ स्वामीनाथन आयोग की न्यूनतम लागत मूल्यों की सिफारिशों का ज़मीन पर बेहद लचर क्रियान्वयन, मौजूदा सरकार की प्राथमिकताओं का स्पष्ट दर्शन मिलता है। जब सरकारें पूंजीपतियों की कठपुतली बनकर मेहनतकश विरोधी नीतियों का पालन करती नज़र आएं तो संविधान की प्रस्तावना का वो समाजवाद खोखला नज़र आता है।

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