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“नक्सलियों की बात छोड़ दीजिए साहब, बस्तर में बिचौलिये इंदिरा आवास के पैसे खा जाते हैं”

बस्तर के इलाके

बस्तर के इलाके

मैं छत्तीसगढ़ के नारायणपुर ज़िले में था जहां से बस्तर पहुंचने में लगभग तीन घंटे का समय लगता है। बस्तर के आस-पास के इलाकों में नारायणपुर काफी विकसित ज़िला है और इसी वजह से लोग यहां आकर अपनी ज़रूरत की चीज़ें लेते हैं। यहां बाज़ार, दुकानें और सभी प्रशासनिक भवन हैं। मुझे नारायणपुर होते हुए बस्तर जाना था, इसलिए हम ग्रामीण इलाकों को देखते हुए आगे की तरफ निकल पड़े। इस दौरान मेरी नज़र कुछ पंचायतों पर पड़ी जो अन्य जगहों से बिल्कुल अलग थी। नारायणपुर का नज़ारा कुछ अलग ही लग रहा था जहां लोग काफी सुबह उठ जाते हैं और शाम ढलते ही सभी अपने-अपने घरों के अंदर चले जाते हैं।

हमारे साथ कुछ स्थानीय लोग मौजूद थे, जो हमें आस-पास के इलाकों के बारे में बता रहे थे। कुछ दूर आगे चलने के बाद पक्की सड़क खत्म हो गई और हम लाल मिट्टी वाले कच्चे रास्ते पर आ गए। इस दौरान कच्ची सड़क के किनारे कुछ घर दिख रहे थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कोई गांव हो। रास्ते में कुछ लड़कियां खेतों में काम करती दिख रही थीं तो कुछ स्कूल की तरफ जा रही थीं।

हमारे एक स्थानीय साथी ने बताया कि जिस कच्ची सड़क पर हम चल रहे हैं, वो कुछ महीने पहले ही बनी है। इससे पहले तो यहां की हालत और भी खराब थी। फिर अचानक एक ऐसी जगह आई जहां गाड़ी रोक दी गई। रास्ता बिल्कुल घाटी की तरह दिखाई पड़ रहा था और बीच में एक नहर थी। गाड़ी नहर को पार नहीं कर सकती थी, इसलिए हम पैदल ही आगे का रास्ता नापने लगे।

अधूरा पड़ा निर्माण कार्य

जब हम पैदल चलने लगे तब हमें लगा कि हम बस्तर में प्रवेश कर चुके हैं। हालांकि गांव वहां से 4-5 किलोमीटर की दूरी पर थी और हमें उस कच्चे रास्ते में कोई नहीं दिखाई दे रहा था। दृश्य बिल्कुल जंगल जैसा लग रहा था लेकिन दोपहिया वाहन की आवाजाही बता रही थी कि रास्ता आमजन का ही है। हमें कुछ दूूरी पर एक टूटा पुल मिला जिससे यह पता लग रहा था कि यहां आने में क्यों परेशानी होती है। टूटे पुल के पास गिट्टी और एक पानी की टैंकर रखी थी, जिससे पता लग रहा था कि काम अधुरा रह गया है।

हम जैसे ही आगे की ओर बढ़े , हमें कुछ घर दिखाई पड़े। लोगों से पूछने पर पता लगा कि हम ‘मोरहापार’ गांव पहुंच चुके हैं। गांव वोलों से बात करने के बाद पता लगा कि यहां ‘गोंडी जनजाति’ के लोग रहते हैं। इन्हें हिंदी ज़्यादा नहीं आती लेकिन थोड़ी-बहुत बोल लेते हैं। इस गांव में कोई अस्पताल तो नहीं दिखी लेकिन ‘मितानिन’ मौजूद थीं। मितानिन बिल्कुल आशा जैसा ही काॅन्सेप्ट है जिसमें गांव की एक महिला को ज़िला अस्पताल में प्रशिक्षण दिया जाता है और वो छोटी-मोटी बीमारी  के लिए गांव वालों को दवा देती है।

हम गांव के प्राथमिक स्कूल में पहुंचे जहां महज़ 4-5 बच्चे और केवल दो अध्यापक थे जो हमारे सिस्टम की गड़बड़ी को बता रहे थे।

सरकारी योजनाओं की बात

जब मैं गांव में आगे की तरफ बढ़ता गया तब मुझे लगभग सभी घरों में सोलर प्लेट दिखाई पड़े। इसके अलावा लोगों को उज्वला योजना के बारे में भी जानकारी थी। एक ग्रामीण से इस विषय पर पूछे जने पर उन्होंने बताया कि उज्वला योजना के तहत गैस चुल्हा प्राप्त करने के लिए फॉर्म भर दिया गया है लेकिन अभी तक किसी को गैस चुल्हा मिली नहीं है। गांव में औसत घर खपरैल के थे, जबकि कुछ पक्के के मकान भी दिखे। स्थानीय लोगों ने बताया कि यहां हर साल इंदिरा आवास के तहत घर बनाने के लिए 4-5 परिवारों को पैसे दिए जाते हैं। सरकार की ओर से आवंटित राशि 1,50,000 होती है लेकिन लाभुक को 1,20,000 ही दिया जाता है। 30 हज़ार रुपये बिचौलिये खा लेते हैं।

सूखते कुकरमुत्ते

इसी कड़ी में हम एक ऐसे घर में गए जिन्होंने इंदिरा आवास के लिए मिले पैसों से मकान बनाया है। घर पर सिर्फ महिला थी, पति खेत में काम करने गए थे। घर के सामने कुछ सूख रहा था। इसके बारे में पूछे जाने पर महिला ने बताया कि यह जंगली कुकरमुता है जिसे सुखा कर अचार बनाया जाता है। एक परिवार के रहने के लिए घर ठीक ही थी लेकिन शौचालय इतनी छोटी थी कि सभी लोग शौच के लिए बाहर ही जाते हैं।

वह तालाब जिसे गांव के लोगों ने पैसा इकट्ठा करके बनवाया है।

हमें आगे एक तालाब दिखी जहां लोगों से पूछने पर मालूम हुआ कि पूरे गांव के लोगों ने पैसे इकट्ठा करके इस तालाब को बनवाया है और अब इसमें मछली पालन करते हैं। जब हम और कुछ दूर चले तब हमारे ही स्थानीय साथी ने वहां के लोगों से गांव के माहौल के बारे में पूछा। मेरे स्थानीय साथी के प्रश्न सुनकर वहां मौजूद शख्स ने कहा, “यहां तक तो सब ठीक है बस आगे मत जाना, क्योंकि सोनपुर में खतरा है।”

खैर, अभी तक की हमारी यात्रा सही थी, हमें कहीं पर भी कोई खतरा दिखाई नहीं पड़ा। लोग बता रहे थे कि तालाब से सोनपुर की दूरी लगभग 6-7 किलोमीटर है। यहां तक पहुंचते-पहुंचते ही शाम हो चुकी थी, इसलिए हमने सोनपुर जाना टाल दिया और वापस नहर की तरफ बढ़ गए, जहां हमारी गाड़ी खड़ी थी।

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