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बेहद खास है नादिया मुराद को नोबेल शांति पुरस्कार मिलना

Nadia Murad

इस साल (2018) के नोबेल शांति पुरस्कार का ऐलान किया गया जिसमें दो लोगों डॉ. डेनिस मुकवेज और नादिया मुराद को सयुंक्त रूप से उनके बेमिसाल योगदान के लिए इस साल का पुरस्कार दिया गया।

नाम से ही ज़ाहिर होता है कि यह पुरस्कार उस व्यक्ति को दिया जाता है जिसने हिंसा से दूर इस दुनिया को शांति का पैगाम दिया और शांति और अमन के लिए काम किया।

आज के समय जब आतंकवाद से पूरी दुनिया परेशान है और उससे लड़ने के लिए एक हो रही है तब नादिया मुराद ने उन ISIS के आतंकवादियों के बीच से निकल कर कभी हार ना मानने वाला जज़्बा दिखाया है ।

इराक में रहने वाली नादिया मुराद तब ISIS के चंगुल में फंसी जब उनके शहर में आतंकी हमला किया गया और उसके बाद आतंकवादियों ने उनको 3 महीने तक अपने पास रखा और 3 महीने बाद किसी ना किसी तरह वो बाहर निकलने में सफल हुईं। उन तीन महीनो में उनके साथ बलात्कार और हिंसा की एक दर्दनाक कहानी जुड़ी जिसका बयां उन्होंने खुद अपनी किताब में किया। उनका कहना है कि उन्होंने आवाज़ उठाने का इसलिए सोचा क्योंकि उनकी आवाज़ ही उनका हथियार है। यही हथियार आतंवादियों से लड़ने में उनकी सहायता कर सकता है।

2014 में जब वो ISIS के चंगुल से बाहर आने में सफल हुईं तो उन्होंने आवाज़ उठाने की ठानी। एक किताब The Last Girl में उन्होंने मुखर रूप से बताया है कि किस तरह लड़कियों को आतंकवादी इस्तेमाल कर रहें है। उन्होंने उन सभी लड़कियां जो उनके चंगुल में हैं उनके दर्द को पूरी दुनिया के सामने रखने की कोशिश की है।

उनके 6 भाई और उनकी माँ अब इस दुनिया में नहीं हैं, ISIS ने उनकी हत्या कर दी। उनका कहना है कि पूरी दुनिया को ये जान लेना चाहिए कि इस्लामिक देश बनाने के नाम पर किस तरह से ज़ुल्म किये जा रहे हैं।

वो बताती हैं कि कितने लोगों ने उनके साथ बलात्कार किया और कितने लोगों के पास उनको बेचा गया उसकी कोई गिनती ही नहीं है। ऐसा नहीं है कि ये दर्दभरी कहानी केवल नादिया मुराद की है। यह बताया जाता है कि 3000 से ज़्यादा यज़ीदी महिला और लड़कियों को ISIS ने बंधक बनाया हुआ है और उनके साथ वो रोज़ाना अलग-अलग तरीके से ज़ुल्म कर रहा है।

ऐसे वक्त जब महिला हर जगह पर अपनी आवाज़ को बुलंद कर रही है तब नोबेल शांति पुरस्कार एक ऐसी महिला को देना वाकई उन सबको हौसला देने और बढ़ाने का काम करेगा जो हिंसा के विरुद्ध आवाज़ उठाने की सोचती तो हैं लेकिन उठा नहीं पाती। आतंकवादियों की सोच जो धर्म के नाम पर लोगों को मारने की है, वो असल में किसी भी धर्म से नहीं हैं और उनसे लड़ने के लिए ऐसी बुलंद आवाज़ों को सहयोग करने की आवश्यकता है जिससे हर किसी को प्रेरणा मिले।

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