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पिंजरा तोड़ ज़रूरी है ताकि सुनसान सड़क पर अकेली लड़की बेखौफ चल सके

दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्राएं विश्विद्यालय प्रशासन के खिलाफ आंदोलन कर रही हैं। हालांकि यह आंदोलन कई सालों से चल रहा है लेकिन इस बार अपनी पराकाष्ठा पर है। आंदोलन, विश्वविद्यालय के हॉस्टल में 7.30 बजे शाम के बाद छात्राओं के आने-जाने की पाबंदी को लेकर है। इसे लड़कियां ‘कर्फ्यू टाइमिंग’ कहती हैं। आते-जाते लोग लड़कियों को देखकर विश्वविद्यालय पर गुस्सा भी हो जाते होंगे कि विश्वविद्यालय प्रशासन को इस तरह की पाबंदी नहीं लगानी चाहिए। कुछ लोग शायद लड़कियों को ही कोस रहे होंगे कि ये कैसी लड़कियां है जो रात में घूमने की आज़ादी चाहती हैं। शाम के बाद आखिर बाहर निकलकर ये क्या करेंगी, किससे मिलने जाएंगी?

लेकिन हम शायद यह नहीं समझ पा रहे हैं कि यह आंदोलन विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ नहीं है बल्कि यह आंदोलन हमारे खिलाफ है, उस समाज के खिलाफ है जो आज से कलश स्थापना कर, एक मिट्टी की मूर्ति को देवी बनाकर पूजा करने वाला है। यह उस समाज के खिलाफ आंदोलन है जो अपने माथे पर ‘जय माता दी’ की पट्टी बांधकर ‘देवी शक्ति’ की आराधना में लीन होने वाला है। यह उसी समाज के खिलाफ आंदोलन है जिसने विश्वविद्यालय को बाध्य किया हुआ है कि वो इस तरह की ‘कर्फ्यू टाइमिंग’ लगाए रखे।

यह आंदोलन दिल्ली विश्वविद्यालय के खिलाफ नहीं बल्कि उसी समाज के खिलाफ है जो लड़कियों के लिए ‘गर्ल्स स्कूल’ ढूंढता फिरता है। लड़कियां जब ‘को-एड’ कॉलेज में पढ़ना चाहती है तब यह समाज उसे ‘गर्ल्स कॉलेज’ में दाखिले के लिए प्रेरित करता रहता है। गर्ल्स कॉलेज बनाने वालों ने इस देश की लड़कियों के लिए, शिक्षा की व्यवस्था की थी ताकि लड़कियां पढ़-लिखकर समाज की कुरीतियों को तोड़ सकें, वो सशक्त बन सकें लेकिन समाज ने उन महापुरुषों की सोच को दरकिनार करते हुए अपनी कुंठित मानसिकता, कॉलेजों पर थोप दिया। असल में विश्वविद्यालय को समाज ने चारो तरफ से घेर लिया है।

https://youtu.be/xj_z_TfOTf0

लड़कियों को सुरक्षित रखना विश्वविद्यालयों को अपना कर्तव्य लगता है लेकिन सोचने वाली बात है कि सुरक्षा किससे? उसी समाज से जिसने लड़कियों के लिए अपने खुद के घर को जेल बना दिया है? लड़कियों के लिए सिर्फ हॉस्टल में समयानुसार आने-जाने की पाबंदी नहीं है बल्कि उनके घरों में भी है। उनके कमरे की खिड़कियों से बार-बार झांककर देखा जाता है कि कहीं वो किसी से बात तो नहीं कर रहीं, कहीं वो कुछ ऐसा तो नहीं देख रहीं जो समाज के हिसाब से अश्लील है। लड़कियों के फोन का “कॉल लॉग” चेक किया जाता है।

लड़कियों का फोन उठाकर देख लीजिए , हर एप्प पर एक पासवर्ड जड़ा हुआ है, वो इसलिए क्योंकि कोई ना कोई उसकी प्राइवेसी को लगातार ब्रीच करने कि कोशिश कर रहा है। घर से लेकर कॉलेज तक, हर चौक-चौराहे पर समाज की शुद्धता के सिपाही खड़े हैं जो लड़कियों के एक-एक कदम का हिसाब रख रहे हैं। लड़कियां अपने मुंह पर नकाब लगाई घूम रही हैं क्योंकि ये नकाब उन्हें समाज से सुरक्षा दे रहा है। वो छुप रही हैं इसी समाज से। यह समाज असल में लड़कियों के लिए इंसान के स्वछंद विचरण करने वाली जगह ही नहीं बल्कि एक “पिंजड़ा” बन गया है।

“पिंजड़ा तोड़ आंदोलन” इसी से आज़ादी की मांग है। विश्वविद्यालय तो बस ज़रिया है, असल लड़ाई तो लड़कियां उस समाज से लड़ रही हैं जिन्होंने सुरक्षा के नाम पर उसे बेटी, बहू, माँ और दादी में सीमित कर रखा है। लड़कियां खुद की पहचान के लिए लड़ रही हैं। वो समाज के बनाये हुए रिश्तों की जंज़ीरों को तोड़कर खुद के लिए एक सड़क ढूंढ रही हैं जहां वो बिना आंख चारो तरफ घुमाए चल सकें। लड़कियां एक ऐसा कमरा ढूंढ रही हैं जहां वो खिड़की-दरवाज़ें खोलकर सो सकें। लड़कियां एक ऐसा वर्कप्लेस ढूंढ रही हैं जहां उसे बार-बार अपनी कमीज गले तक ना करना पड़े।

लड़कियां एक ऐसा बस-मेट्रो-ट्रेन ढूंढ रही हैं जहां उसे कोई भीड़ का बहाना लेकर जहां-तहां न छुए। लड़कियां एक ऐसा परिवार ढूंढ रही है जहां उसे रिश्ते, आज़ादी का भान कराते हो। लड़कियां एक ऐसा समाज खोज रही है जो सीसीटीवी की तरह नज़र ना रखकर उसके संघर्ष के साथ खड़ा हो सके। लड़कियां एक ऐसा देश ढूंढ रही है जिसे वो खुद का भी देश कह सके। लड़कियां एक ऐसी दुनिया ढूंढ रही है जिसमें वो परछाई नहीं बल्कि आत्मा से लैस एक पूरा शरीर बन सकें।

पिंजरा तोड़ आंदोलन का एक चित्र

पिंजरा तोड़ आंदोलन हो तो विश्वविद्यालय में रहा है लेकिन आंदोलन विश्विद्यालय के खिलाफ नहीं बल्कि हम सबको इंसान बनाने की कवायद है। हॉस्टल के बाहर लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं इसलिए उन्हें हॉस्टल रूपी पिंजरे के अंदर बंद कर देना इस समाज के खोखले होने की निशानी है। हमें सोचना चाहिए कि लड़कियों को हॉस्टल के बाहर किससे खतरा है? हमें डूब मरना चाहिए कि हम अपने ही साथियों के लिए खतरा बन गए हैं। याद रहे जिस समाज में हर मोड़ पर पुलिस खड़ी हो वो समाज नहीं रह जाता। वो समाज कैसा समाज होगा जहां हर इंसान एक-दूसरे के लिए खतरा बन जाता होगा।

लड़कियों के इस पिंजरा तोड़ आंदोलन को हमें समझने की ज़रूरत है, इस आंदोलन को विश्वविद्यालयों के खिलाफ समझकर हम इस संघर्ष की मूल भावना की अनदेखी कर देंगे। पिंजरा तोड़ आंदोलन तो हमारे दिमाग को पिंजरे से बाहर निकालने के लिए है। अगर आप विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस की तरफ हैं तो कुछ देर के लिए रुकिए, इन लड़कियों को समझिए। जब आप वहां से निकलेंगे तो निश्चितरूप से आप खुद पर हज़ार सवाल खड़ा कर देंगे और जब सवाल होंगे तो हम शायद बेहतर इंसान भी बन पाएंगे। बाकी ये संघर्ष लंबा भी है और सफल भी और उम्मीद भी कि ये पिंजरा एक दिन ज़रूर टूटेगा। यह संघर्ष उस अंधेरी रात की सुनसान सड़क पर एक अकेली लड़की के बेखौफ चलते जाने की है। बेखौफ!
#सत्यमेवजयते

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