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झूठे राजनीतिक वादों का उदाहरण है रायबरेली AIIMS

Aiims Save Male Nurses

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चुनावी वायदों और असल काम के बीच का अंतर लगातार बना रहना भारतीय राजनीति का एक लक्षण बन चुका है। यह नेता और पार्टी से परे है। चुनावी मैनिफेस्टो और जनसभाओं में लोकलुभावन बातें और काम करने-कराने का पक्का निश्चय वोटबैंक को अपनी ओर खींचने वाला माना जाता है। इस विषय पर राजनीति शास्त्र की कई थियोरीज़ भी लिखी जा चुकी हैं। रायबरेली एम्स के उदाहरण से इसे समझने की कोशिश करते हैं।

रायबरेली एम्स में कुछ दिनों पहले ओ.पी.डी. शुरू कर दी गयी है। इस पर रायबरेली के कई पत्रकारों (माधव सिंह- पत्रिका, संजय सिंह-पायनियर, चांद खान, अनुभव स्वरूप)  से बात हुई। वर्ष 2007 में एम्स को लेकर सुगबुगाहट शुरू हुई, दो साल बाद 2009 में कैबिनेट ने एम्स की स्थापना के प्रस्ताव पर मोहर लगा दी। इसके बाद ज़मीन को लेकर काफी जद्दोजहद शुरू हुई। मुंशीगंज स्थित शुगर मिल की ज़मीन के अधिगृहण को लेकर कागज़ी कार्रवाई शुरू हुई लेकिन प्रदेश की तत्कालीन बसपा सरकार ने अचानक चुप्पी साध ली। इसके कारण एम्स के लिए ज़मीन अधिग्रहण नहीं हो सका।

प्रस्ताव पास होने के बाद सरकार की ओर से ज़मीन ना दिए जाने के कारण इसका निर्माण रुक गया। फिर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार आयी तो सपा सरकार ने एम्स की ज़मीन अधिग्रहण की प्रक्रिया की शुरुआत कर दी। सपा सरकार ने शुगर मील की 97 एकड़ भूमि स्वास्थ्य मंत्रालय को स्थानांतरित कर दिया, इसके बाद मौजूदा संप्रग सरकार ने निर्माण के लिए 167 करोड़ रुपये जारी कर दिए। निर्माण कार्य शुरू हुआ, पूरा एम्स शुरू करने के बजाय लोकसभा चुनाव को देखते हुए एम्स की ओपीडी शुरू कराने की कवायद शुरू हुई।

एम्स की ओपीडी वर्ष 2014 लोकसभा चुनाव की घोषणा के पूर्व बनकर तैयार हो गई लेकिन शुरू नहीं हो पाई। केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद एम्स का निर्माण ठंडे बस्ते में चला गया। सरकार ने एम्स के बारे में कोई खास बात ही नहीं की। काँग्रेस ने भी कई बार लोकल स्तर पर इसे भाजपा सरकार की अनदेखी बताया।

वर्ष 2009 से लेकर वर्ष 2012 तक के मध्य काम ना शुरू होने के कारण एम्स के बजट में बढोत्तरी की गई। इस बजट को 837 करोड़ से बढ़ाकर वर्ष 1427 करोड़ कर दिया और रिव्यू डीपीआर सरकार को भेजा गया। वर्ष 2018 में सरकार ने 1427 करोड़ के डीपीआर को निरस्त करते हुए पूर्व के बजट 837 करोड़ को ही माना है लेकिन बेडों की संख्या 960 से घटाकर 600 कर दिया। इसके बाद 260 करोड़ का बजट भी दूसरी किश्त के रूप में जारी कर दिया।

अब कुछ सोचने वाली बातें-

काँग्रेस अब तक एम्स की ओपीडी ही बनवा पायी, जबकि काँग्रेस के हर चुनावी घोषणापत्र में स्वास्थ्य को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। उस समय की बसपा सरकार ने ज़मीन आवंटित नहीं की, बसपा स्वयं को पिछड़ों का मसीहा के रूप में प्रदर्शित करती रही है और फिर भी एम्स के लिए भूमि आवंटन में आनाकानी की गई। इसे काँग्रेस और बसपा दोनों का खोखलापन कहा जाना चाहिए।

कहीं-न-कहीं इन दोनों ने अपना वोटबैंक और दम्भ बनाये रखने की कोशिश में इस प्रक्रिया को पांच साल पीछे धकेल दिया। उसके बाद सपा सरकार ने ज़मीन दे दी, लेकिन यह चुनावों के बीच का समय था ऐसे में यदि एम्स का काम तेज़ी पकड़ता तो काँग्रेस शायद इसके नाम पर वोट ना मांग पाती, इसके लिए पहले ओपीडी बनायी गयी।

इतने बड़े स्तर के अस्पताल बनाने के लिए कोई प्रभावी क्रियान्वयन नीति नहीं दिखाई दी। अब अगला लोकसभा चुनाव सामने है तो ओपीडी चलाने का प्रक्रम (काफी हद तक दिखावा) शुरू हो गया है। भाजपा और काँग्रेस ने इस देरी के लिए एक दूसरे को ज़िम्मेदार बताया है। मुझे काँग्रेस से भाजपा में गए दिनेश प्रताप सिंह का बयान इस मुद्दे पर इंगित करना ज़रूरी लगता है क्योंकि रायबरेली और यहां की जनता ने काँग्रेस को सन 1952 से स्थायित्व दिया है और काँग्रेस ने वायदे, चापलूसी और लेटलतीफी को अपनी कार्यशैली में लगातार ज़ाहिर किया है।

अगर हम रायबरेली एम्स की पहली चर्चा और अब तक के बीच हुए चुनावों, वायदों और इनके सबके बीच स्वास्थ्य सुविधा से वंचित कर दी गयी जनता को देखें तो सब स्पष्ट हो जाता है। इतनी बड़ी योजना/संस्था बनने में वक्त लगता है, लेकिन राजनीतिक ढोंग और प्रपंच के बीच खटती जनता अगले चुनाव तक अक्सर सब भूल चुकी होती है।

बहरहाल, ओपीडी के अधमरे ढंग से शुरू होने पर सबको बधाई। अब जनता बस सबके चुनावी मैनिफेस्टो और नए नारों का इंतज़ार कर रही है। अगले पांच-दस साल में एम्स बने-न-बने कुछ नए निजी अस्पताल ज़रूर बन जायेंगे। लोकतंत्र की जय हो!

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