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हमारे देश में नेताओं का बर्तन धोना भी ब्रेकिंग न्यूज़ बन जाती है

भारत की सेवा मतलब लाखों पीड़ित लोगों की सेवा करना है। इसका मतलब गरीबी, अज्ञानता, बीमारी और अवसर की असमानता को समाप्त करना है। हमारी पीढ़ी के सबसे महानतम व्यक्ति (महात्मा गांधी) की महत्वाकांक्षा हर आंख से एक-एक आंसू पोंछने की है। हो सकता है ये कार्य हमारे लिए संभव ना हो लेकिन जब तक पीड़ितों के आंसू खत्म नहीं हो जाते, तब तक हमारा काम खत्म नहीं होगा।

15 अगस्त 1947 को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने भारत की आज़ादी के जश्न में अपनी इस सेवा भाव को बताते हुए इस बात का भी ज़िक्र कर दिया था कि इस काम में वक्त तो लगेगा। हालांकि कितना समय लगेगा इस बात का ज़िक्र उन्होंने नहीं किया लेकिन उनको भी इस बात का अंदाज़ा नहीं रहा होगा कि 70 बरस तक भी हम मंज़िल से दूर काफी दूर रह जायेंगे।

रविवार को राहुल गांधी काँग्रेस की CWC की बैठक के लिए वर्धा पहुंचे और ये बताया गया कि जिस तरह 8 अगस्त 1942 को वर्धा से महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की थी उसी तर्ज़ पर काँग्रेस भाजपा को हटाने की मुहीम शुरू करेगी।

बैठक में क्या हुआ और किन मुद्दों पर चर्चा हुई और आने वाले वक्त में भारत की बेहतरी के लिए कॉंग्रेस के पास क्या प्लान है उनसे ज़्यादा खबर बनी राहुल गांधी और उनकी मां सोनिया गांधी की एक तस्वीर, जिसमें वो अपने खाये हुए बर्तन को धोते हुए नज़र आ रहे हैं।

भारत जैसे देश में जहां 19 करोड़ से ज़्यादा लोग भुखमरी की वजह से हर रात भूखे पेट सोने को मजबूर हैं, जहां का किसान अपने हक के लिए या तो सड़कों पर लाठियां खा रहा है या तो फिर आत्महत्या कर अपनी जान गवां रहा है, उस देश में खबर बनती है नेताओं का एक दिन के लिए एक समय खाये हुए भोजन पर अपने बर्तन धोना। वो भी तब जब वहां की रीत ही यही है कि आपको खाने के बाद बर्तन खुद धोने हैं क्योंकि गांधी जी हमेशा खुद को किसी और के ऊपर निर्भर रहने के विरोध में आवाज़ उठाते रहें।

सवाल किसी का चाय बेचना या किसी का बर्तन धोना नहीं है, भारत के ज़्यादातर लोग इन कामों को वर्षों से करते आये हैं और इसके लिए उनको किसी से शिकायत भी नहीं है लेकिन सवाल यह है कि हम क्यों भारत की आज़ादी के 70 बरस बाद भी असल मुद्दों को छोड़कर ऐसे मुद्दों में उलझकर रहते हैं, जहां पर उलझने की ज़रूरत नहीं है।

नेहरू जी का किसानों के बीच रहना हो या फिर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का गरीबों के घर जाकर एक दिन बिताना, मोदी जी के चाय बेचने की जगह हो या योगी जी के एक दिन दलित के घर जाकर खाना खाने की खबर, आखिर क्या मिलता है एक दिन की इस नौटंकी से और फिर इसको खबर बनाकर रात भर इसपर बहस करने से?

क्या एक दिन किसी झोपड़ी में रहकर उन किसानों, उन गरीबों का दर्द महसूस कर सकते हैं या उस एक दिन से आप भारत की असल तस्वीर बदल सकते हैं?

समय आ गया है कि खबर उसको बनाया जाए जो आम आदमी से जुड़ा मसला हो। चर्चा उसकी की जाए जिससे तस्वीर बदलने की उम्मीद हो। गांधी जी को जब अपना अखबार छापना था तो उससे पहले वो भारत को समझने के लिए भारत दर्शन पर निकले थे। चाहते तो वो भी एक दिन दलित के घर रह सकते थे या एक दिन के लिए बर्तन धोकर बैठ सकते थे।

हंगामा खड़ा करने की कोई ज़रूरत ही नहीं क्योंकि बर्तन धोना भी खुद की सेवा ही करना है। राहुल गांधी ने भारत की तस्वीर बदलने के लिए कोई ऐसा अनोखा काम नहीं किया, जिसपर ब्रेकिंग न्यूज़ बने और चर्चा हो। बस 2019 के लिए उनको भी मौका मिल गया कहने का कि मेरी मां ने भी वर्धा जाकर बर्तन धोये थे।

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