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अमृतसर रेल हादसा: क्या रावण दहन धार्मिक से ज़्यादा एक राजनीतिक कार्यक्रम था?

अमृतसर रेल हादसा

अमृतसर में रेल हादसा

चंद रोज़ पहले अमृतसर में ट्रेन की चपेट में आकर सैकड़ों लोग मौत की नींंद सो गए। इन दिनों एक तरफ जहां स्थानीय लोगों का गुस्सा उबाल पर है, वहीं राजनीतिक गलियारों में आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी शुरू हो चुका है। ऐसी घटनाएं देश के अलग-अलग इलाकों में पहले भी हुई हैं, जहां कुछ वक्त तक लोगों में आक्रोश रहा है और फिर सभी अपने-अपने कामों में मशगूल गए हैं। अमृतसर ट्रेन हादसे ने व्यक्तिगत तौर पर मुझे ज़रूर झकझोड़ कर रख दिया है।

ये घटना ऐसे शहर में हुई है जो मेरे लिए एक सिख होने के नाते बहुत पवित्र है। मुझे यकीन है कि हर मज़हब के लोग इस हादसे को सुनकर काफी दु:खी हैं। हम तो तब भी दु:खी थे जब काफी साल पहले हरियाणा के डबवाली में एक स्कूल में आग लगने से काफी मासूमों की दिल दहलाने वाली मौत हो गई थी। हम तब भी दु:खी थे जब कुछ साल पहले तमिलनाडु में भी इसी तरह मासूमों की मौत हुई थी।

हमें भारतीय पारिवारिक रचना को समझते हुये यह निश्चित कर लेना चाहिए कि यहां एक मौत महज़ व्यक्तिगत नहीं, बल्कि पारिवारिक है। औसत घड़ों में रोज़गार करने वाला एकमात्र सदस्य अब नहीं रहा। बिलखते हुए परिवारों के बच्चों और तमाम सदस्यों का भविष्य अंधकार में है। टीवी पर तमाम तरह के डिबेट्स और लोगों के द्वारा आलोचनाएं होने के बाद भी ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। हम यह स्वीकार कर चुके हैं कि इस तरह की घटनाएं निरंतर होती रहेंगी जिनके सामने हम बहुत कमज़ोर पड़ते जाएंगे।

इस घटना का विश्लेषण करने के लिये बहुत से पहलुओं पर विचार करने की ज़रूरत है। हमें समझना होगा कि राज्य और केन्द्र की सरकार ऐसी घटनाओं के बाद राजनीति क्यों करते हैं? दशहरे का रावण दहन नियमों को ताक पर रखकर क्यों किया जाता है? रेलवे व्यवस्था पर भी प्रकाश डालने की ज़रूरत हैं और सबसे ज़रूरी बात हमारे व्यक्तिगत जीवन में हिंसा का समावेश कुछ इस कदर हो चुका है, जिसका हम आनंद लेने लगे हैं।

अमृतसर रेल हादसे में अपनों को खोने के बाद रोते हुए परिजन

सबसे पहले अगर हम घटना के स्थान की विश्लेषण करें तो ये पंजाब राज्य के एक मुख्य शहर अमृतसर साहिब में हुई है। सिख विचारधारा में यह स्थल बहुत पवित्र है लेकिन पंजाब के काले दौर में ये वहीं शहर है जो अक्सर गोलियों की आवाज़ से गूंजता रहा है। खासकर भारतीय सेना द्वारा किये गए (अनैतिक) आपरेशन ब्लू स्टार के बाद।

पंजाब के काले दौर और यहां की राजनीति के बारे में मैं इसलिए भी बात करना ज़रूरी समझता हूं, क्योंकि अगर इस स्थल पर किसी अप्रत्याशित व्यक्ति द्वारा विस्फोट हो जाता, तो क्या मीडिया इसे सिख आंतकवाद का नाम देकर ज़ोर-ज़ोर से पुकारता? पंजाब में हिंदू समाज और पंजाब के बाहर सिख समाज भयभीत होने के साथ 1984 को एक बार फिर याद करते? नेता अपनी मौजूदगी ट्विटर पर दिखा रहे होते, पुलिस इतनी सक्रिय तो ज़रूर हो जाती कि एक दो दिनों में ही पूरे मामले से पर्दा उठाने की हामी भर रही होती। बहुत से बाहरी राज्य जैसे, बिहार और उत्तर प्रदेश से नेताओं का यहां जमावड़ा लग गया होता।

सभी समय चक्र की तरह ऐसे घुमते जैसे यहां चुनाव हो। अगर सड़क दुर्घटना भी होती और कहीं ड्राइवर सिख समुदाय से होता, तब भी आंतकवाद की साजिश के साथ-साथ हमारा मीडिया पाकिस्तान और आईएसआई का नाम उछाल रहा होता। हमें इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए  कि यहां पर मौत बहुत भयानक और दयनीय तरीके से हुई है जिसे मीडिया बस एक घटना के तौर पर दिखा रही है। यही मीडिया कश्मीर के नौजवान को भटका हुआ नौजवान कहता है, हिंदू मुसलमान मुद्दे पर विस्फोटक विश्लेषण करवाने से पीछे नहीं हटता। वह क्यों इस घटना को सरकारी आंतकवाद नहीं कह पा रहा है? यंहा भी मीडिया के चरित्र को समझने की ज़रूरत है। व्यक्तिगत तौर पर मैं यह स्वीकार कर चुका हूं कि भारतीय मीडिया अब अपनी विश्वसनीयता खो रहा है और इस घटना के बाद केवल नवजोत कौर सिद्धू पर ही तंज कसा जा रहा है।

हमें रावण दहन और रेल मंत्रालय का विश्लेषण करना भी ज़रूरी है। बचपन से ही हिंदी माध्यम का विद्यार्थी रहा हूं। दोस्त-यार भी उत्तर प्रदेश और बिहार से थे। उनका घर जाता था और वहां उनसे साथ खाता-पीता था, मतलब हिंदू धर्म के बारे में एक सटीक जानकारी मुझे थी और इसी विचारधारा ने मुझे ये समझा दिया था कि रावण एक बुराई का प्रतीक है, क्योंकि उसने एक महिला ‘सीता मॉं’ का अपहरण कर स्त्री जाति का अपमान किया था और इसलिए ही इसका दहन ज़रूरी है।

मेरे लिये रावण दहन एक मनोरंजन से ज़्यादा और कुछ कभी नहीं था लेकिन अगर स्त्री जाति का अपमान ही सिर्फ रावण दहन का एकमात्र कारण है , तो हम सभी रावण हैं, मैं भी हूं। आज समाज में कोई ऐसा पुरुष नहीं है जिसने किसी ना किसी रूप में किसी औरत का अपमान ना किया हो।

अमृतसर में भी लोग मनोरंजन के उद्देश्य से रावण दहन देखने आये होंगे जंहा वह मज़दूर वर्ग ज़्यादा होगा जो भारत के विकास में बहुत अहम भूमिका निभाता है। वो मज़दूर वर्ग जो अक्सर उत्तर प्रदेश और बिहार से ही होता है, जिसे महाराष्ट्र में पीटा जाता है और हाल ही में गुजरात में जिन्हें एक घटना का कारण बनाकर पलायन के लिये मजबूर कर दिया गया। वही गरीब वर्ग ही यहां इस सरकारी हादसे का शिकार हो गया है, जहां रावण दहन एक धार्मिक कार्यक्रम से ज़्यादा एक राजनीति का कार्यक्रम था।

अपनों की तलाश में रोते परिजन

यहां बड़े-बड़े राजनीतिक बैनर लगे होंगे जहां रावण दहन के साथ-साथ कई नेता अपनी राजनीतिक रोटियां सेक रहे होंगे। हमें याद रखना चाहिए कि धर्म के नाम पर हर जगह भीड़ उमड़ती है और इसका राजनीतिक फायदा हर वर्ग के नेता उठाते आ रहे हैं। इस समारोह में भी ऐसा ही हुआ। बिजली ना होने की वजह से अंधेरा अपने चरम पर था। पटाखों की आवाज़ में कुछ सुनाई नहीं दे रहा था और पटाखों के धुएं के कारण कुछ दिखाई भी नहीं दे रहा था। मतलब सरकारी नाकामयाबी के साथ-साथ ज़िन्दगी की अनदेखी भी हो रही थी लेकिन ये अनदेखी लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा में क्यों नहीं होती जहां हमारे नेता बैठते हैं? एक आम नागरिक की व्यवस्था में हमारा सरकारी तंत्र बेहद बीमार, कमज़ोर और आर्थिक रूप से गरीब दिखाई देता है।

अब कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि आम तौर पर यहां अक्सर रेलगाड़ी की स्पीड बहुत कम होती है लेकिन रावण दहन के दिन इस गाड़ी की रफ्तार बहुत अधिक थी। अब जब केन्द्र और राज्य सरकार दोनों ही कटघरे में हैं तब क्या इन सब की जांच होगी? क्या मीडिया इस पर दबाव बनाएगा? क्या हम सवाल करेंगे कि ये सरकारी आंतकवाद है, ना कि घटना या हादसा। सरकारी चूक नेताओं के ताम-झाम में नहीं होती, बल्कि आम आदमी के लिए ही ये अक्सर घातक साबित हो जाती है। हमें यह निश्चित करना होगा कि अगर हम आज सवाल नहीं करेंगे, तब इस तरह की दुर्घटना कल फिर होगी और सैकड़ों मासूम लोग मौत की नींद सो जाएंगे।

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