ईद भाईचारा, प्रेम, उल्लास एवं खुदा को और करीब से देखने, महसूस एवं इबादत करने का दिन होता है। पिछली ‘ईदुल-अजहा’ पर मैंने अपनी एक महिला मित्र को ईद की शुभकामनाएं दी एवं खुदा से हम सभी के जीवन में समृद्धि मांगी।
बदले में उसने भी मुझे शुभकामनाएं दी। काफी समय तक बात करने के बाद मैंने उससे पूछा, “तू अभी तक नमाज़ अदा करने मस्ज़िद नहीं गई?” तो उसने जो उत्तर मुझे दिया उससे मुझे ज़ोरदार धक्का लगा।
उसने बताया, “भइया और पापा गए हैं। महिलाएं मस्जिद नहीं जाती हैं।” यह सुनकर मैं अचंभित हो गया।
उस बातचीत के बाद मेरे मन में कई सवाल घूमने लगे। क्या महिलाएं अराधना स्थल पर जाकर अपने आराध्य का ध्यान नहीं कर सकती हैं? कौन सी परंपराएं हैं, जो महिलाओं को मस्जिद जाने से रोकती हैं? कौन सी दकियानूसी सोच है जो महिलाओं का मस्जिद में प्रवेश निषेध कराती है? ऐसे ही सैंकड़ों सवाल मेरे मन को बेचैन कर रहे थे।
इन सबका उत्तर तलाशने के लिए मैंने यूट्यूब पर एक इस्लामिक स्कॉलर का एक सेशन सुना। उसमें उन्होंने कुरान को हाथ में उठाते हुए कहा,
कुरान में कहीं भी नहीं लिखा है कि औरत मस्जिद में नहीं जा सकती है। भारत और पाकिस्तान में ही महिलाओं का मस्जिद में प्रवेश निषेध है इसलिए इस्लाम को देखने के लिए इंडिया को मत देखो, पाकिस्तान को मत देखो, कुरान को देखो।
उन्होंने कहा,
सहीह अल बुखारी के Vol.1 Hadit no. 825 में बताया गया है कि मोमिना (धार्मिक महिला) को मस्जिद में जाने से मत रोको।
फिर उन्होंने सहीह अल बुखारी Vol.1 Hadit no. 824 का हवाला देते हुए बताया,
रात में भी यदि महिला मस्जिद जाना चाहती हैं तो उसे मत रोको। औरतें मस्जिद में जा सकती हैं। यदि भारत और पाकिस्तान में औरतों को मस्जिद जाने से रोका जाता है तो वो क्यों रोकते हैं, रोकने वालों से पूछा जाये।
इससे ये बात तो पूर्णत: स्पष्ट हो गई है कि इस्लामिक धर्मग्रंथ में तो कहीं भी नहीं लिखा हुआ कि महिलाओं का मस्जिद में प्रवेश निषेध है। यह प्रथा सिर्फ और सिर्फ कट्टर लोगों एवं महिलाओं पर अपना स्वामित्व समझने वाले लोगों की देन है। 21वीं सदी में महिलाओं के लिए ऐसी रोक-टोक हमें वास्तव में शर्मसार करती है।
खुदा सभी के हैं, पुरुष के भी, महिला के भी, बच्चे के भी, वृद्ध के भी, जवान के भी और प्रौढ़ के भी। खुदा की इबादत से किसी को रोकने का अधिकार किसी को नहीं है। इस देश में हर व्यक्ति स्वतंत्र है। उसे अपनी-अपनी इबादतगाह पर जाकर इबादत करने का पूर्ण अधिकार होना चाहिए। ऐसी रूढ़ियों एवं दकियानूसी परंपराओं को कहीं गहरे कब्र में दफ्न कर देना चाहिए।
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