Site icon Youth Ki Awaaz

आज 50 सालों बाद भी ‘रागदरबारी’ युवाओं को आकर्षित करता है

श्रीलाल शुक्ल के कालजयी उपन्यास ‘राग दरबारी’ ने 50 वर्ष पूरे कर लिए हैं। 1968 में लिखा गया यह उपन्यास भारतीय समाज में मौजूद सभी विसंगतियों और कुसंगतियों पर व्यंग्यात्मक चोट करता है।

श्रीलाल शुक्ल ने शिवपालगंज का उदाहरण देकर जिस प्रकार सरकारी व्यवस्थाओं, सामाजिक मान्यताओं, मानवीय प्रवृत्तियों पर व्यंग किया है, वह अभूतपूर्व है। जिस प्रकार शिवपालगंज में लगातार अनेक घटनाएं होती रहती हैं, वे सिर्फ वहीं तक सीमित नहीं हैं बल्कि उपन्यास के 50 वर्षों के बाद भी वे घटनाएं समाज में और भी क्रूरता के साथ घटित हो रही हैं। पूरा देश लगातार शिवपालगंज बनता जा रहा है।

कुछ सालों पहले मैंने इस उपन्यास का नाम सुना था और मुझे इसे पढ़ने की इच्छा हुई। अमेज़न से किताब तो मंगा ली लेकिन अभी तक इसे पूरी नहीं पढ़ सका। बावजूद इसके मैं यह कह सकता हूं कि राग दरबारी मौजूदा समय में एक अकेला उपन्यास नज़र आता है जो लोगों को अभी भी अपनी ओर आकर्षित करता है, खासतौर पर उनको जिन्होंने इसे अभी तक पढ़ा भी नहीं है। आज के समय में भी हर कोई श्रीलाल शुक्ल के शिवपालगंज को जानना चाहता है, उसे समझना चाहता है।

इसी क्रम में भारत के सबसे बड़े प्रकाशन राजकमल प्रकाशन ने अपने इतिहास में पहली बार कृति उत्सव मनाने का फैसला किया और पहली शुरुआत की कालजयी उपन्यास ‘राग दरबारी’ से। राजकमल प्रकाशन ने मेरे जैसे तमाम साहित्य प्रेमियों को एक मौका दिया कि एक शाम हम शिवपालगंज को जी सकें।

कार्यक्रम में मौजूद अतिथि वक्ता पुरुषोत्तम अग्रवाल, पुष्पेश पंत, जिलियन राइट, ज्या द्रेज ने रागदरबारी से जुड़े अपने संस्मरण सुनाएं। मैंने इन वक्ताओं की बातों को संक्षेप में संपादित करने की एक छोटी सी कोशिश की है।

ज्या द्रेज

ज्या द्रेज ने कहा कि कार्यक्रम में आने से पहले उन्होंने गूगल मैप्स पर शिवपालगंज को ढूंढने की बहुत कोशिश की लेकिन उन्हें निराशा हाथ लगी। वह कहते हैं कि वह शिवपालगंज के बारे में तो ज़्यादा नहीं जानते लेकिन वैसे ही एक और गांव पालमपुर को ज़रूर नज़दीकी से जानते हैं, जहां वह 1984 में रहा करते थे। उन्होंने कहा कि इतने सालों बाद देश की सिर्फ आर्थिक स्थितियां बदली हैं, सामाजिक स्थिति अभी भी वैसी की वैसी बुरी है और कई और रूपों में अपने को स्थापित कर चुकी है।

पुरुषोत्तम अग्रवाल

साहित्य जगत के जाने-माने नाम पुरुषोत्तम अग्रवाल राग दरबारी को चिढ़ में लिखा उपन्यास मानते हैं। वह कहते हैं कि असल में यह व्यंग्यात्मक किताब नहीं है, व्यंग रूप में लिखी एक अत्याधुनिक दस्तावेज़ है। हम जो पूरा दिन करते हैं, उसके बारे में उसे कितना जानते हैं, कितना समझते हैं, राग दरबारी उसी की एक बेजोड़ अभिव्यक्ति है। राग दरबारी निराशा का नहीं वेदना का उपन्यास है।

जिलियन राइट

जिलियन ने ही राग दरबारी का हिंदी से अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है। जिलियन उन कुछ एक लोगों में से हैं जिन्होंने श्री लाल जी के साथ लंबा वक्त बिताया है, उन्हें समझा है, जाना है। जिलियन कहती हैं कि उन्होंने अनुवाद करने से पहले दिल्ली के श्रीराम सेंटर के बाहर से राग दरबारी खरीदी और उसे पढ़ा। वह कहती हैं कि श्रीलाल शुक्ल एक अनुवादक के लिए परफेक्ट लेखक थे, जो काम करने के लिए खुली स्वतंत्रता देते थे। साहित्य प्रेम के प्रति काफी गंभीर थे श्रीलाल जी।

राग दरबारी कैसे वजूद में आई इसपर जिलियन कहती हैं कि श्रीलाल जी ने ग्रामीण परिदृश्यों पर 30-40 छोटी-छोटी कहानियां लिखी और चाय पीते-पीते उसे अपने दोस्तों को सुनाई, यहीं से उन्होंने राग दरबारी लिखने के बारे में सोचा।

पुष्पेश पंत

जेएनयू से रिटायर प्रोफेसर पुष्पेश पंत राग दरबारी की आलोचनात्मक समीक्षा करते हैं। वह कहते हैं कि शिवपालगंज आज के समय प्रासंगिक नहीं है क्योंकि राग दरबारी आपातकाल, मंडल-कमंडल, बाबरी विध्वंस, संपूर्ण क्रांति, जनहित याचिकाओं, मोदी-अमित शाह के दौर से पहले लिखा गया उपन्यास है इसलिए इसे मौजूदा परिप्रेक्ष्य में पूरी तरह लागू नहीं किया जा सकता है।

वह कहते हैं यह उपन्यास पठनीय ज़रूर है लेकिन आज के भारत में इसे चस्पा नहीं किया जा सकता है। शिवपालगंज पूरा भारत है, मैं इससे सहमत नहीं हूं।

Exit mobile version