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क्या भारत में विज्ञान के द्वारा धार्मिक अंधविश्वास को खत्म करना मुश्किल हो गया है?

इसरो

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन

Quora में शैशव कुमार का एक लेख पढ़ा जिसमें विज्ञान और वैज्ञानिकों द्वारा अंधविश्वास को बढ़ावा दिए जाने को लेकर तमाम तरह की बातें कही गई है। इसमें तथ्यों के हवाले से कहा गया कि वैज्ञानिकों के अंधविश्वास का क्या किया जाए? लेख में तमाम तरह की जानकारियां दी गई है।

फिर सवाल किया गया, जब विज्ञान खुद वैज्ञानिकों के अंधविश्वास को दूर नही कर पाया, तब आम लोगों के बीच से अंधविश्वास कैसे खत्म किया जाएगा। उपरोक्त उदाहरणों संदर्भ में मैं अपनी बात लिख रहा हूं। मेरी यह समझ है कि अंधविश्वास को विज्ञान नष्ट कर सकता है या नहीं, यह अतिवादी सवाल है। इसका उद्देश्य है लोगों को मूल मुद्दा से भटकाना।

जिस समाज में विज्ञान का विकास अधिक हुआ है, वहां सामान्य रूप से अंधश्रद्धा कम है। आप नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क, फ्रांस आदि का उदाहरण देख सकते हैं। वहां के लोगों की उम्र अधिक होने के साथ-साथ उनकी सेहत भी अच्छी है। ऐसे देशों में नास्तिकों की भी बड़ी संख्या है। धर्म और ईश्वर अंधश्रद्धा के बड़े आलंबन हैं।

संभव है कई वैज्ञानिक भी ऐसा सोचते हों, मगर उटपटांग कुछ भी कर लें और फिर उसे ईश्वर से जोड़ दें, यह तो यह खतरनाक है। जैसे, गंगा में मूर्ति प्रवाह, मोहर्रम और रामनवमी में साम्प्रदायिक तलवार के साथ रैली, महिलाओं के साथ शोषण, मंदिर-मस्जिद की राजनीति, धर्म के नाम पर बाबावाद आदि। यह तय है कि इससे अंधश्रद्धा बढ़ेगी। ऐसे में धर्म और ईश्वर का कांसेप्ट दोनों का नष्ट होना तय है।

हमारे देश में आज भी बड़ी संख्या में इंजीनियर और डॉक्टर अंधविश्वासी हैं। वह इसलिए कि उन्होंने विज्ञान पढ़ा है पेशा के लिए। उनपर धार्मिक-संस्कृतिक रूप से अंधश्रद्धा हावी है। उनका मानस वैज्ञानिक या तार्किक नहीं है, मगर जो बच्चा बचपन से तर्क और विज्ञान आदि की समझ तथा अनुभव आधारित ज्ञान के साथ बड़ा होगा, उसके अंधश्रद्धावान होने की संभावना कम होगी।

हमारे समाज का कुछ विश्वासों के कारण पीछे रह जाना तय है। जैसे, ईश्वर की मर्ज़ी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता, हमारे ग्रंथ में सब सही बातें कही गई है। ऐसी सोच को खत्म करना पड़ेगा और यही वजह है कि भारत और पाकिस्तान जैसे देश में बाबा हज़ारों हैं और विज्ञानिकों की अकाल है।

दुनिया की जनसंख्या में शायद हमारा पांचवा हिस्सा है, पर विज्ञान के नोबल प्राइज़ में हम 0.5 प्रतिशत भी नहीं हैं। तो वैज्ञानिकों के अपवाद स्वरूप किये गए बेतुके अंधविश्वास को हम सामान्य सच मान लें अथवा दूसरे पहलुओं की तरफ देख लें या उस तरफ से अपनी आंखों को बंद कर लें, यह हमारी स्वतंत्रता है।

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