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“जब मंदिर में मेरे साथ शोषण हो रहा था तो भगवान खामोश था, इसलिए मैं नास्तिक हूं”

मैं नास्तिक हूं। क्यों? बताती हूं। मैं 10 साल की थी जब पहली बार माँ के साथ मंदिर गयी। मंदिर की बनावट की वजह से आज भी बैद्यनाथ धाम (बाबाधाम) मंदिर में बहुत भीड़ होती है। मेरे लिए मंदिर जाना, हाथ में जल लेना, मंदिर के नुक्कड़ से फूल लेना- सब कुछ नया था। हम जब छोटे होते हैं तो अपने माँ-बाप की नकल करना अच्छा लगता है। मेरी माँ आगे आगे चल रही थी, पूजा की सामग्री खरीद रही थी और मैं भी उसके पीछे-पीछे वही खरीदने की ज़िद कर रही थी।

माँ ने मेरा हाथ ज़ोर से पकड़ा और मुझे मंदिर के गर्भ गृह की ओर ले जाने लगी। बहुत भीड़ थी, लोग एक दूसरे के ऊपर गिर रहे थे। एक दूसरे से आगे जाने की मानो होड़ लगी हुई थी। उस दिन लगा लोग सिर्फ दिखावे के लिए मंदिर जाते हैं। जिसे लोग भगवान कहते हैं उस पत्थर की मूर्ति तक पहुंचते-पहुंचते उनकी आस्था अस्त हो जाती है। लोग लाइन में खड़े होकर भगवान पर कम और बाकी लोगों पर ज़्यादा ध्यान देते हैं। लड़कियों ने क्या पहना है, कौन लाइन तोड़ रहा है, किसने क्या प्रसाद खरीदा है। ऐसी आस्था का क्या फायदा?

खैर, आस्था और मेरा बैर काफी पुराना है। आगे की कहानी पर ध्यान देते हैं। भीड़ ज्यादा होने की वजह से माँ मंदिर के बाहर काफी देर तक इंतज़ार करती रही। भीड़ टस से मस नहीं हुई। थोड़ी देर बाद माँ का भी धैर्य टूट गया। वो धीरे-धीरे मुझे खुद से चिपका कर आगे बढ़ने लगी। मंदिर के गर्व गृह में प्रवेश-निकास के लिए एक ही दरवाज़ा था। अचानक से भेड़-बकरी की तरह लोग मंदिर से बाहर आए और भीड़ ने मुझे धक्का देकर माँ से अलग कर दिया। माँ ज़ोर-ज़ोर से मेरा नाम चिल्लाने लगी। तभी एक अधेड़ उम्र के आदमी ने मेरा हाथ पकड़ा और बोला- “आपकी बेटी ठीक है, मेरे साथ है। मंदिर के अंदर रहता हूं साथ।”

भीड़ बहुत थी। माँ भी पीछे छूट गयी थी। मंदिर के गर्भ गृह में घुसना किसी प्रोजेक्ट से कम नहीं था। वो आदमी मुझे लेकर अंदर गया, एक कोने में खड़ा हो गया। भीड़ में फिर से खोने के डर से मैंने उसका कुर्ता ज़ोर से पकड़ा हुआ था। अचानक से उस आदमी ने मुझे सामने खड़ा कर दिया और फिर ज़ोर से खुद से चिपका लिया। मुझे लगा कि ये भी माँ जैसा है, भीड़ से बचाना चाहता है। मुझे क्या पता था कि यहां रक्षक ही भक्षक है। फिर वो धीरे-धीरे अपने सेक्शुअल पार्ट मेरे पीछे रगड़ने लगा। मुझे पहले समझ नहीं आया, मेरा ध्यान अभी भी भीड़ में खोयी हुई मेरी माँ पर था। भीड़ होने की वजह से मंदिर के पंडों ने दरवाज़े से प्रवेश बन्द कर दिया था।

वो वहीं नहीं रुका। अचानक से मुझे पीछे से धक्का लगा और फिर उस आदमी ने मुझे और ज़ोर से पकड़ लिया। फिर ज़ोर-ज़ोर से पीछे चूटी काटने लगा। मैं बहुत ज़ोर से चिल्लाई लेकिन भीड़ कहां सुनती है। उस दिन पता चला भीड़ सिर्फ सुनती ही नहीं ऐसा नहीं है बल्कि भीड़ देख भी नहीं सकती है, भीड़ महसूस भी नहीं कर सकती, अगर महसूस कर सकती तो मुझे बचाया होता, अगर महसूस कर सकती तो मोहम्मद अखलाक ज़िंदा होता। माँ और मुझमें सिर्फ एक दीवार की दूरी थी। मुझे उस वक्त बस माँ चाहिए थी क्योंकि मैं बेहद गुस्सा थी। गुस्सा उस भीड़ पर जो मुझे अनदेखा कर रही थी, उस भीड़ पर जिसने माँ से अलग किया और उस भीड़ पर जिसका हिस्सा वो अधेड़ उम्र का आदमी था।

माँ को देखते ही मैं ज़ोर से चिल्लायी। मैं झट से माँ से लिपट गयी। माँ के आते ही वो भीड़ का हिस्सा बन गया। माँ के चेहरे पर राहत थी और मेरे चेहरे पर सवाल। सवाल यह कि सुबह जब मैंने माँ से पूछा था कि लोग मंदिर क्यों जाते हैं तो उसने बोला- “मंदिर लोग मन की शांति के लिए जाते हैं। अच्छे लोग मंदिर जाते हैं और उनके साथ कुछ बुरा हो रहा होता है तो भगवान सब ठीक कर देता है।” लेकिन मेरा मन अशांत था, बहुत डरा हुआ। जिस भगवान की बात माँ कर रही थी वो व्यस्त था। व्यस्त था लोगों की नकली श्रद्धा बटोरने में, दूध से नहाने में, पैसे बटोरने में और अपना स्वामित्व दिखाने में।

मुझे समझ आया कि भगवान, मंदिर, आस्था, और अच्छे लोग- बस एक दिखावा है। मैं उसी दिन से नास्तिक हो गयी।

अब मेरा सवाल है धर्म और मंदिर के उन ठेकेदारों से, पुजारियों से और पत्थर में आस्था रख रहे उन सारे ढोंगियों से- एक महिला का माहवारी के वक्त मंदिर आना पाप है, उस महिला को रोक सकते हो तुम लोग तो फिर मंदिर में छिछोरी हरकत कर रहे मर्दों को क्यों नहीं रोक सकते? या तुमने मान लिया है कि मर्दों का मंदिर में महिलाओं को यहां-वहां छूना पुण्य का काम है या उनका हक। क्यों आस्था के पुजारी मंदिर में महिलाओं के साथ आये दिन हो रहे यौन उत्पीड़न के खिलाफ मार्च नहीं करते। जवाब चाहिए!

#MeeToo आंदोलन ने आवाज़ दी उन ज़ुबानों को जो डर के पीछे छुप गयी थी। उन चेहरों से नक़ाब नोचकर फेक दिया है जो अपनी ओछी नियत चेहरे के पीछे छुपा लेते हैं। इस आंदोलन में वो नाम तो आएं जिन्हें हम पहचानते थे, लेकिन उन चेहरों का क्या जिन्हें हम नहीं पहचानते? उन चेहरों का क्या जो रात के अंधेरे में कभी बस, ट्रेन, सुनसान सड़क पर अपनी नीचता दिखा कर भाग गए? उन चेहरों का क्या जो कभी मंदिर में, कभी भीड़ का हिस्सा बन कर महिलाओं को अनकम्फर्टेबल करते हैं? मैं क्या लिखूं उस अनजान चेहरे का नाम – भीड़?

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