Site icon Youth Ki Awaaz

“सबरीमाला पर कोर्ट का फैसला बताता है कि लोकतंत्र में संविधान से ऊपर भगवान भी नहीं”

Supreme Court Judgement On Sabarimala Temple

केरल के प्रसिद्ध सबरीमाला मंदिर में एक खास आयु 10 से 50 वर्ष की महिलाओं के प्रवेश पर लगे प्रतिबंध पर सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की अनुमति देकर पूजा-अर्चना में लैंगिक भेदभाव की अवधारणा को खत्म करने का कार्य किया है।

आपको ज्ञात हो कि सबरीमाला भगवान अयप्पा का मंदिर है, जो भगवान शिव और मोहिनी (भगवान विष्णु का एक रूप) की संतान हैं। वह ब्रह्मचारी स्वरुप में हैं। खास उम्र की महिलाओं को प्रवेश ना देने के पीछे तर्क दिया जाता था कि इस उम्र में महिलाओं को मासिक धर्म होता है जिससे वो अपवित्र होती हैं और उनके मंदिर प्रवेश से भगवान का अनादर होगा।

वस्तुतः इस मामले को कोर्ट तक जाना ही नहीं चाहिए था, इसे समाज के बीच, धर्माचार्यों द्वारा ही सुलझा लेने से समाज में एक बहुत ही सार्थक संदशे जाता, हिन्दू समाज के लिए भी और खासकर महिलाओं के सम्मान के लिए भी।

खैर, कोर्ट के फैसले का सम्मान कर मंदिर प्रशासन ने एक बेहतर संदेश दिया है कि लोकतंत्र में संविधान से ऊपर भगवान भी नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय अंतिम निर्णय है और ये लोकतंत्र की खूबसूरती भी है।

गौरतलब है कि इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन और कुछ अन्य लोगों ने मंदिर में एक खास उम्र तक की महिलाओं पर लगी रोक को चुनौती  दी थी। उनकी मांग थी कि यह प्रथा लैंगिक आधार पर भेदभाव करती है, इसे खत्म किया जाए। इसी को संज्ञान में लेते हुए कार्यवाही आगे बढ़ी और एक ऐतिहासिक निर्णय के साथ इसका अंत हुआ।

जिस समाज में महिलाओं को देवी का स्वरुप समझा जाता है, उसी समाज में उनके साथ भेदभाव, ये कहां तक जायज है? वो भी तब जब किसी कानून ने नहीं बल्कि एक सोच (पितृसत्तामक सोच) द्वारा इसे जन्म दिया गया है।

महिलाओं के लिए सारे बने बनाये नियम पितृसत्तामक सोच की उपज है और उसे खत्म करना उसे चुनौती देने के समान है। ये सोच समाज में बाह्य तौर पर भले ही ना दिखे लेकिन आतंरिक तौर पर आज भी विद्यमान है। जिस वजह से महिलाओं को अपने हक के लिए आज भी कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाना पड़ता है, जबकि ऐसे फैसले कोर्ट से नहीं बल्कि समाज के बीच से आने की ज़रूरत है।

मासिक चक्र एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। इसे अपवित्र संभवत: पुरातन काल में इसलिए कहा गया हो ताकि महिलाओं को आराम मिल सके वो घर के क्रियाकलाप से दूर रहें। धर्म की अवधारणा के साथ इसके मिलन ने, इस सोच को बदलकर अपराध बोध में बदल दिया।

ऐसी सोच विकसित कर दी गई जैसे मानो मासिक चक्र एक अपराध हो, बल्कि सच्चाई यह है कि मासिक चक्र के बिना मानव सभ्यता ही संभव नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने धर्म के ठेकेदारों को करारा जवाब दिया है, इस निर्णय ने महिलाओं की समानता की दिशा को एक ठोस कदम प्रदान किया है।

Exit mobile version