सर सैयद अहमद खान भारतीय पुनर्जागरण के सबसे प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। महात्मा गांधी से पूर्व आधुनिक भारत में सर सैयद शायद ऐसे अकेले व्यक्ति हुए जिन्होंने समाज का वैचारिक नेतृत्व करने के साथ-साथ अपने विचारों को ज़मीन पर उतारने का भी उपक्रम किया। अपने विचारों को ज़मीन पर उतरते देखने का भाग्य ना मार्क्स को मिला ना महात्मा गांधी को पर सर सैयद को अपनी वैचारिक स्थापनाओं को फलते-फूलते देखने का सुख प्राप्त हुआ। मुस्लिम समाज में व्यापक स्तर पर आधुनिक शिक्षा की पैठ मज़बूत करना सर सैयद की कोशिशों का अंजाम है। जो बिना शक मुस्लिम महिलाओं के शिक्षा के बारे में उनके विचारों के कारण मुझे ही नहीं एक बड़ी जमात को अधूरा लगता है।
सर सैयद अहमद खान चितंक के साथ-साथ शैक्षिक एंव सामाजिक संगठनकर्ता भी थे। इसलिए उनके पूरे व्यक्तित्व में वैचारिक चिंतन की स्वतंत्रता, स्वछंदता, संगठनकर्ता के साथ राजनीतिक कौशल का गुण भी देखने को मिलता है। उन्होंने इस सूत्र वाक्य से मुस्लिम समुदाय के मुस्तकबिल का मसौदा तैयार किया “इंसान में तमाम खूंबियां तालीम से पैदा होती है।” अपने जीवन के चार दशक उन्होंने इस सूत्र वाक्य को पूरा करने में खपा दिए।
उनकी आलोचना में यह बात कही जाती है कि वो साम्प्रदायिक हुए बगैर आहिस्ता-आहिस्ता सिर्फ मुसलमानों की भलाई, तरक्की और सुधार की तरफ अधिक प्रवृत होते गए। उन्होंने कभी भी मुस्लिम समाज की अवामी ज़िन्दगी और उसकी आर्थिक असमानता पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। विकास और सुधार के धुन में सिर्फ उच्च और मध्यम वर्ग को ही सामने रखा। इसके लिए उन्होंने मुगल दरबार से नाता तोड़कर ईस्ट इंडिया कंपनी में नौकरी करना भी उचित समझा।
सैयद अहमद की पैदाइश 17 अक्टूबर 1817 में दिल्ली के सैयद घराने में हुई। उनके पिता सैयद मुतक्की मुहम्मद शाह, अकबर सानी के सलाहकार थे। दादा सैयद हादी आलमगीर शाही दरबार में ऊंचे पद पर आसीन थे और नाना जान ख्वाजा फरीदुद्दीन शहंशा अकबर सानी के दरबार में वज़ीर थे। पूरा परिवार मुगल दरबार से सम्बद्ध था। सर सैयद के आरंभिक जीवन पर उनकी माता अज़ीज़ुन्निसा की दीक्षा का गहरा प्रभाव था। अपने नाना ख्वाजा फ़रीदुद्दीन से उन्होंने शिक्षा प्राप्त की और फिर अपने खालू (मौसा) मौलवी खलीलुल्लाह की संगत में अदालती कामकाज सीखा।
सर सैयद को पहली नौकरी आगरा की अदालत में नायब मुंशी के रूप में मिली और फिर अपनी मेहनत से तरक्की पाते रहे। मैनपुरी और फतेहपुर सीकरी में भी सेवाएं दीं। दिल्ली में सदरे अमीन हुए, इसके बाद बिजनौर में उसी पद पर आसीन रहे। मुरादाबाद में सद्रुस्सुदुर की हैसीयत से तैनाती हुई। यहां से गाज़ीपुर और फिर बनारस में नियुक्त रहें। सर सैयद इन क्षेत्रों में श्रेष्ठ सेवाओं की वजह से बहुत लोकप्रिय रहे।
उन स्थानों में निवास और बिरादरी की सामूहिक परिस्थिति ने सर सैयद को बेचैन कर दिया। बगावत और फसाद ने भी उनके ज़हन को बहुत प्रभावित किया। राष्ट्र के कल्याण के लिए वह बहुत कुछ सोचने पर मजबूर हुए। उन्होंने निश्चय किया कि इस बिरादरी के ज़हन से अंग्रेज़ी ज़ुबान और पाश्चात्य शिक्षा के प्रति घृणा को खत्म करना होगा, तभी उनके लिए बंद किये गये सारे दरवाज़े खुल सकते हैं। वरना यह पूरी बिरादरी खानसामा और सेवक बन कर ही रह जायेगी।
इस भावना और उद्देश्य से उन्होंने 1864 में गाज़ीपुर में साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना की। 1870 में ‘तहज़ीबुल अखलाक़’ जारी किया। साइंटिफिक सोसाइटी का उद्देश्य पश्चिमी भाषाओं में लिखी गयी किताबों का उर्दू में अनुवाद करना था और ‘तहज़ीबुल अखलाक़’ के प्रकाशन का उद्देश्य आम मुसलमानों की प्रतिभा को निखारना था। 1875 में अलीगढ़ में मदरसतुल उलूम और फिर मोहमडन ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना के पीछे भी यही भावना और उद्देश्य था। सर सैयद को अपने इस उद्देश्य में सफलता मिली और आज अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के रूप में सर सैयद के ख्वाबों का परचम पूरी दुनिया में लहरा रहा है।
इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती है कि सर सैयद अहमद खान आधुनिक भारतीय मुस्लिम समाज में शैक्षिक विकास के प्रकाशस्तंभ है। लेकिन यह भी आश्चर्यजनक है कि उनकी प्राथमिकता में मुसलमान औरतों की कोई जगह नहीं थी, जिसके कारण उनके चिंतन को अधूरा भी माना जाता है। वैसे यह जानना अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि किन कारणों से सर सैयद अहमद खान मुस्लिम महिला को धार्मिक शिक्षा की दहलीज से बाहर नहीं निकाल सके ना ही ऐसा करने के पक्षधर थे।
लाहौर अधिवेशन में महिला शिक्षा पर वह कहते हैं-
जो जदीद इंतज़ाम औरतों की तालीम का इस ज़माने में किया जाता है, ख्वाह वह इतंज़ाम गवरमेंट का हो और ख्वाह इसी तर्ज का इंतज़ाम कोई मुसलमान या कोई अंजुमने इस्लामी अख्तियार करें, उसको मैं पसंद नहीं कर सकता। औरतों की तालीम के लिए मदरसों का कायम करना और यूरोप के जनाना मदरसों की तकलीद (अनुसरण) करना हिंदुस्तान की मौजूदा हालत के लिए किसी तरह मुनासिब नहीं और मैं इसका सख्त मुखालिफ हूं।
आगे वह यह भी कहते हैं कि मेरी यह ख्वाहिश नहीं है कि तुम उन मुकद्दस (पवित्र) किताबों के बदले जो तुम्हारी दादीयां-नानियां पढ़ती आई हैं, इस ज़माने की मुख्वजा (प्रचलित) नामुबारक (अशुभ) किताबों का पढ़ना अख्तियार करो जो इस जमाने में फैलती जाती है। मैं तुम्हें नसीहत देता हूं कि तुम अपना पुराना तरीका-ए-तालीम अख्तियार करने की कोशिश करो।
सर सैयद अहमद खान अपनी क्रांतिकारी धार्मिक चिन्तन की वजह से आलिमों तथा परम्परावादी धार्मिक समूहों में, सर्वथा गुमराह (भटका हुआ) माने गए। कुरान पर उनका टीका “खुतबाते-अहमदिया” भी अपनी प्रगतिशीलता एंव गैर-पारम्परिकता के कारण आलोचना का शिकार रही। जिन कारणों से शायद सामाजिक स्तर पर स्वयं को टटोलते हुए सर सैयद संस्कारगत मान्यताओं–रूढ़ियों के मकड़जाल से निकल नहीं पाते।
सर सैयद अहमद खान की प्रारंभिक कोशिशों में महिला शिक्षा पर ऐसी राय रखने का नतीजा यह कहा जा सकता है कि आज स्थिति यह है कि महिला कामगारों की वास्तविक संख्या कुल मुस्लिम आबादी का एक बड़ा हिस्सा है। अब यदि आपने अपनी इस बड़ी आबादी को ही अपने शिक्षा अभियान से बाहर रखा तो इसका स्वाभाविक निषकर्ष यह भी होगा कि आपका अभियान वही ढाक का तीन पात रहेगा।
सर सैयद को गुज़रे एक सौ वर्ष से अधिक हो गएं लेकिन मुस्लिम समाज को केन्द्र में रखकर कोई ऐसी शैक्षिक राजनीति नहीं बन सकी जिसमें यह बड़ा हिस्सा पहले दर्जे में खड़े होकर जीवन का फल अपने हाथों से तोड़ सके। ज़ाहिर है मुस्लिम महिला आबादी सर सैयद अहमद खान को दुखी मन से याद करती होगी क्योंकि वो एक बड़ी आबादी का पथ प्रदशर्क नहीं बन सके।
सर सैयद अहमद खान के मित्र डिप्टी नज़ीर अहमद अपने पहले उपन्यास “मिरातुल उरूस” में मुस्लिम महिलाओं की बदहाली के बारे में बताते हैं तो सर सैयद को यह नहीं भाता है क्योंकि यह भी मुस्लिम समाज के लिए बनाए गए चौखट से बाहर था। यहां तक कि सर सैयद भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस से सहयोग करने की ज़रूरत से भी खुद को अलहदा रखते है।
सर सैयद अहमद खान की मृत्यु के बाद 1898 में स्त्री शिक्षा के लिए एक स्वतंत्र कोषांग बना लिया गया, जिसका नेतृत्व शेख अब्दुल्लाह (पापा मियां) करते है, हर राज्य की राजधानियों में लड़कियों के लिए स्कूल भी खोले गएं, धार्मिक शिक्षा के साथ आधुनिक तालिम को भी इसमें शामिल किया गया। पर यह कोशिश कुछ खास दायरे में ही सिमट कर रह गई। ज़ाहिर है, सर सैयद रूढियों के दबाव या बंधनों की वजह से अपने शैक्षिक चिंतन में जिन बिंदुओं पर अस्पष्ट थे, ऊहापोह में थे, इसके बारे में बाद में उदारता बनाई गई।
आधुनिक समाज खौफ ज़रूर खा सकता है कि अगर सर सैयद मुस्लिम एजुकेशन के लिए विपरीत रास्ते को तलाश करने की कोशिश नहीं करते तो आज भारत में मुसलमानों की शैक्षिक एंव सामाजिक स्थिति यह नहीं होती, जो थोड़ी बहुत भी दिख रही है। मुस्लिम महिलाओं के बारे में विपरीत ख्याल रखने के बाद भी मुस्लिम समाज को आधुनिक और आत्मनिर्भर बनाने की उनकी कोशिशों पर कालिख नहीं पोती जा सकती है।
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