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रेडलाइट क्षेत्रों की स्त्रियां देवी का रूप क्यों नहीं?

दुर्गा पूजा

दुर्गा पूजा

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

शक्ति की आराधना के लिए हममें से कई लोग ना जाने कितनी बार दुर्गा सप्तशती के देवी सूक्त में शामिल इस मंत्र का जाप करते हैं, किन्तु इसके वास्तविक अर्थ को नहीं समझते या समझते हुए भी शायद समझना नहीं चाहते। ‘शक्ति’ अर्थात दुर्गा और ‘दुर्गा’ अर्थात प्रकृति। यह शक्ति कण-कण में विद्यमान है। जीव-जंतु, पेड़-पौधे, स्त्री-पुरुष आदि संपूर्ण चराचर जगत में व्याप्त है। ऐसी मान्यता है कि संसार की हर स्त्री मां दुर्गा का ही एक रूप है। फिर चाहे वह घर के चौखट के भीतर रहनेवाली स्त्री हो या फिर उस चौखट से बाहर बाजार में बैठने वाली स्त्री, जिसे समाज ‘वेश्या’ कहता है। देवी सूक्त में ही शामिल एक अन्य मंत्र द्वारा इसकी पुष्टि भी होती है –

या देवि सर्वभूतेषु नारी रूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

बावजूद इसके इस समाज में स्त्री के इस रूप को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। सबसे बड़ी बिडंवना तो यह है कि जिस चौखट को आम दिनों में लोग ‘पाप का द्वार’ मानते हैं, दुर्गा पूजा के दौरान वही चौखट ‘पुण्य प्राप्ति का द्वार’ बन जाता है। इसकी वजह मां दुर्गा की मूर्ति के निर्माण में वेश्यालय के आंगन की मिट्टी के उपयोग की अनिवार्यता।

पश्चिम बंगाल का दशहरा केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। यहां इस दौरान पूजा और पंडालों की भव्यता देखते ही बनती है। बंगाल का दुर्गा पूजा इस मायने में भी खास है क्योंकि यहां करीब पिछले 600 सालों से मां दूर्गा की मूर्ति निर्माण की शुरुआत वेश्यालय के आंगन की मिट्टी से करने की अनिवार्य परंपरा अब भी निभाई जा रही है। पश्चिम बंगाल का सोनागाछी इलाका एशिया का सबसे बड़ा रेड लाइट एरिया है। इस साल कोलकाता के अहिरटोला में दरबार सेक्स वर्क्स के लिए काम करनेवाली एक प्रमुख एनजीओ ‘महिला समन्वय समिति’ ने सोनागाछी की महिलाओं को समर्पित एक पंडाल बनाया है, जिसमें उन्होंने उन महिलाओं की जिंदगी के विविध पक्षों सहित उनकी पीड़ा एवं संघर्ष को उजागर किया है।

सोनागाछी, रेड लाइट एरिया, कोलकाता। फोटो – Flickr

यह एक प्रशंसनीय पहल है। इसके अलावा, समिति ने पहली बार अपने पूजा पंडालों में हर स्त्री को  सिंदूरखेला में शामिल होने का न्यौता दिया है। अब तक केवल विवाहित महिलाएं ही इस उत्सव में शामिल होती थीं। ऐसा करने का उद्देश्य भारतीय समाज के इस तबके को भी एक आम स्त्री की भांति सम्मान देना है।

कब, क्यों और कैसे शुरू हुई यह प्रथा

भारत में प्राय: सभी धर्म और धार्मिक संस्कारों को पवित्र नज़रिये से देखा जाता है। इन सभी संस्कारों में से कुछ की व्याख्या तो बिल्कुल शीशे की तरह पारदर्शी है, जबकि कुछ का पालन केवल इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि ‘पीढ़ियों से ऐसा होता आ रहा है’। हिंदू धार्मिक संस्कृति के मान्यतानुसार मां दुर्गा की मूर्ति बनाने के लिए चार चीजें ज़रूरी होती है- गंगा नदी की मिट्टी, गौमूत्र, गाय का गोबर और पुण्य माटी (वेश्यालय के आंगन की माटी)। पुण्य माटी के बिना ‘मां’ की मूर्ति अधूरी मानी जाती है। बंगाल में सदियों से यह परंपरा चली आ रही है लेकिन इसके पीछे क्या कारण है और यह कब शुरू हुई, इस बारे में शायद ही किसी को कोई जानकारी है।

प्रचलित परंपरा के अनुसार, जिस मंदिर में मां की प्रतिमा स्थापित होती है, उस मंदिर का पुजारी वेश्यालय के द्वार पर खुद जाकर वेश्याओं से वहां की मिट्टी मांगता है। अगर किसी वेश्या ने मिट्टी देने से मना भी कर दिया, तो पुजारी उससे तब तक गुहार लगाता रहता है, जब तक कि वह दे ना दे। हालांकि अक्सर वे ऐसा करती नहीं हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि इसका अंजाम पूजा खत्म होने के बाद उन्हें ही भुगतना पड़ सकता है।

मिट्टी प्राप्त करने के बाद गंगा जल तथा वैदिक मंत्रों से उसका शुद्धिकरण किया जाता है। बदलते समय के साथ, केवल पुजारी ही नहीं, मंदिर बनाने वाले मूर्तिकार भी वेश्यालय के आंगन से मिट्टी मांग कर लाने लगे, क्योंकि अब प्रतिमाएं केवल मंदिरों में ही नहीं, बल्कि मंदिर से बाहर पंडालों में भी स्थापित होती हैं। कोलकाता का कुमोरटोली इलाका मूल रूप से कुम्हारों का निवास क्षेत्र हैं। इन लोगों द्वारा यहां हर साल हज़ारों की संख्या में मां दुर्गा की प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। साल भर इन्हीं मूर्तियों की बिक्री से इनकी आजीविका चलती है।

आखिर क्यों है पुण्य माटी की इतनी महत्ता?

अब बात करते हैं पुण्य माटी अर्थात वेश्यालय के आंगन की मिट्टी के बारे में. आखिर क्यों ‘मां’ की मूर्ति के निर्माण के लिए इस मिट्टी को अनिवार्य माना जाता है? लोकमान्यता के अनुसार, वेश्यालय के आंगन की मिट्टी सबसे शुद्ध होती है, क्योंकि जब कोई व्यक्ति किसी वेश्या के पास जाता है, वह अपनी तमाम अच्छाईयों और सात्विकता को उसके दरवाजे पर ही छोड़ आता है। इसी वजह से तमाम शुद्धता एवं सात्विकता उसके घर के दरवाजे पर ही ठहर जाती हैं। अत: इसी ‘शुद्ध माटी’ (पुण्य माटी) से मां की मूर्ति का निर्माण किया जाता है।

धार्मिक एवं पौराणिक हिंदू मान्यताओं के अनुसार, मां दुर्गा और महिषासुर के बीच जब युद्ध हो रहा था, तब महिषासुर ने छल से मां के कौमार्य को भंग करने का प्रयास किया था। उसकी इस धृष्टता से कुपित होकर मां ने अपनी समस्त शक्ति और ऊर्जा को संग्रहित करके असुर का विनाश कर दिया, जिसने किसी महिला पर कुदृष्टि डाली थी। तभी से समाज के सर्वाधिक उपेक्षित एवं हेय दृष्टि से देखे जानेवाली वेश्याओं को भी सम्मान देने के लिए मां ने दुर्गा पूजा के दौरान उनकी मूर्ति के निर्माण में वेश्यालय के आंगन की मिट्टी अनिवार्यता का विधान रचा।

एक अन्य किवदंती के अनुसार, प्राचीन काल में बंगाल की एक वेश्या, जो कि मां दुर्गा की अनन्य भक्त थी, उसकी पूजा से प्रसन्न होकर एक बार देवी स्वयं प्रकट हुई और उससे वरदान मांगने को कहा। तब उस वेश्या ने वरदानस्वरूप आम स्त्रियों की तरह समाज में मान और प्रतिष्ठा देने की मनोकामना की। देवी ने उससे कहा, ”चूंकि तुम संपूर्ण समाज की वासनामयी कुदृष्टि का भार ढोती हो, इसलिए तुम्हें आम समाज का अंग तो नहीं माना जायेगा लेकिन हर साल दशहरे में मेरी पूजा के दौरान तुम्हारे आंगन की मिट्टी से मेरे निर्माण की शुरुआत किया जाना अनिवार्य होगा। जो ऐसा नहीं करेगा, उसकी पूजा सफल नहीं मानी जायेगी।”

ऐसा माना जाता है कि जो जिंदगी वेश्याएं अपने जीवनयापन के लिए चुनती हैं, वह पाप है और इसी वजह से उनके आंगन की मिट्टी लिए जाने का प्रावधान बनाया गया है, ताकि उन्हें उनके पापों से मुक्ति मिल सके। जब वह देवी की मूर्ति बनाने के लिए अपने आंगन की मिट्टी पुजारी को सौंपती हैं और जब वैदिक मंत्रोच्चार द्वारा उसका शुद्धिकरण किया जाता है, तब इससे उन वेश्याओं की बुरी आत्मा का भी शुद्धिकरण हो जाता है।

भारत में वेश्यावृति

ऐसा माना जाता है कि दुनिया भर में संगठित समाज के अस्तित्व में आने के बाद ‘वेश्यावृति’ सबसे पुराना व्यवसाय है। यह लगभग सभी देशों और हर प्रकार के समाज में पाया जाता है। भारत की बात करें तो  प्राचीनतम हिंदू साहित्य माने जाने वाले ऋगवेद में भी एक व्यवस्थित और स्थापित व्यवसाय के रूप में इसका संदर्भ प्रस्तुत किया गया है। इसके अलावा भारतीय पौराणिक कथाओं में भी यक्षिणियों और अप्सराओं के रूप में उच्च स्तरीय वेश्यावृति का उल्लेख शामिल है, जैसे- मेनका, रंभा, उर्वशी, तिलोत्तमा आदि।

सिंधु घाटी सभ्यता के प्राप्त अवशेषों में भी वेश्यावृति के प्रमाण मिले हैं। इनमें मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक नृत्यांगना की मूर्ति मिली है, जिसे देख कर यह अनुमान लगाया जाता है कि उस ज़माने में भी कुछ महिलाएं मनोरंजन करने का काम किया करती थीं। हालांकि उस वक्त उनकी यह नृत्य कला मंदिर के प्रांगण में संपन्न हुआ करती थी और वह पूर्णत: ईश्वर के प्रति समर्पित होती थीं। इसी वजह से उस दौर में इन नृत्यांगनाओं को समाज में बेहद सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त थी।

देवदासी प्रथा से हुई शुरुआत

अगर देवदासियों का उल्लेख ना किया जाये तब भारत में वेश्यावृति का पुनर्विलोकन अधूरा माना जायेगा। भारतीय समाज में सदियों तक मंदिर में सेवा देने वाली देवदासियों का प्रचलन रहा है, जो नृत्य एवं संगीत में पारंगत होती थी। ज्ञात स्रोतों के आधार पर भारत में वेश्यावृति की शुरुआत देवदासी प्रथा से हुई। देवदासी शब्द दो शब्दों के मेल से बना है, देव अर्थात ‘भगवान’ और दासी ‘सेविका’। इस अर्थ में देखें तो देवदासी का मूल अर्थ है, ‘भगवान की सेविका।’

सर्वप्रथम उज्जैन स्थित महाकाल  मंदिर में भगवान महाकाल की सेवा के लिए कुंवारी कन्याओं की नियुक्ति का प्रावधान शुरू हुआ। प्राचीन ज्ञात स्रोतों के अनुसार, वैसी लड़कियां, जो रजस्वला नहीं हुई हों, उन्हें उनके माता-पिता द्वारा भगवान की सेवा करने के लिए मंदिरों को दान में दे दिया जाता था। ऐसा माना जाता था कि उन लड़कियों का विवाह भगवान से कर दिया गया है। उनका काम मंदिर के भगवान और वहां रहनेवाले उच्च कुलीन ब्राहणों की सेवा करना होता था।

देवदासी प्रथा के नाम पर यौन शोषण।

यह एक वंशानुगत परंपरा थी, अर्थात अगर कोई महिला देवदासी है, तब उसकी बेटी भी आगे चल कर देवदासी बनेगी। इसी वजह से मंदिर प्रशासन द्वारा इन्हें आर्थिक संरक्षण भी प्रदान किया जाता था। मंदिर के अलावा इन लड़कियों को अन्य सामाजिक उत्सवों (शादी-ब्याह, मुंडन आदि) में शामिल  होने की मनाही होती थी। दक्षिण भारत में ऐसी लड़कियों को ‘देवदासी’ नाम दिया गया, जबकि उत्तर भारत में उन्हें ‘मुखी’ कहा जाता था। ये लड़कियां न‍्त्य-संगीत में पारंगत होती थीं। मंदिर में पूजा अथवा आरती के समय ये अपनी कला के ज़रिये ईश्वर के प्रति अपनी श्रद्धा अर्पित करती थीं और इन्हें समाज में बेहद सम्मानित दृष्टि से देखा जाता था।

धर्म के नाम पर किया जाने लगा शोषण

कुछ समय बाद मंदिर के पुजारियों द्वारा इनका अनैतिक उपयोग किया जाने लगा। इस तरह मंदिरों में लड़कियों की नियुक्ति की प्रथा के फलस्वरूप प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष वेश्यावृति की शुरुआत हुई और देवदासी प्रथा धर्म के नाम पर महिलाओं को वेश्यावृति के पेशे में धकेलने का एक आसान मार्ग साबित हुआ। आगे चल कर धार्मिक मठाधीशों और उच्चकुलीन जमींदारों की आपसी सांठ-गांठ के चलते गरीब तथा निम्न जाति की लड़कियों को जबरन बोली लगा कर मंदिर में सेविका बनाने के बहाने से खरीदा-बेचा जाने लगा। बाद में उन्हें वेश्यावृति के धंधे में धकेल दिया जाता था।

दक्षिणी भारत के कुछ हिस्सों में आज भी देवदासी प्रथा कायम है। दरअसल इस प्रथा के मूल कारणों में धार्मिक समर्पण से कहीं ज़्यादा सामाजिक पिछड़ापन, अशिक्षा और गरीबी उत्तरदायी थे। इसी वजह से गरीब परिवारों  के लोग अपनी बेटियों को रजस्वला होने से पूर्व ही भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित करने के नाम पर एक मोटी रकम की लालच में उच्च कुलीन ब्राहमणों को बेच दिया करते थे। हालांकि इन देवदासियों का काम ईश्वर के लिए नृत्य-संगीत पेश करना था, चूंकि उन्हें देखने वाले दर्शक आम लोग ही हुआ करते थे, इसलिए समय के साथ देवदासी प्रथा एक लोककला का पर्याय बन गया। पुराने ज़माने में इन देवदासियों को सात वर्गों में बांटा गया था। ये वर्गीकरण उन देवदासियों के वंश और उनके सामाजिक रूतबे को दर्शाता है, जैसे-

दत्ता : जब कोई धार्मिक प्रवृति का व्यक्ति अपनी बेटी को मंदिर की सेवा के लिए दान कर देता था।

ह्रुता : जब किसी लड़की का अपहरण करके उसे मंदिर की सेवा में लगाया जाता था।

बिकृता : जब किसी लड़की को मंदिर के संचालक या पुजारी के हाथों बेचा जाता था।

भ्रुत्य : जब कोई लड़की स्वैच्छिक रूप से मंदिर की सेवा करती थी।

भक्ता : जब कोई महिला स्वैच्छिक रूप से स्वंय को भगवान की सेवा के लिए समर्पित कर देती थी।

अंलकारा : जब कोई महिला किसी निश्चित योग्यता (नृत्य/संगीत/गायन) के आधार पर मंदिर की सेवा हेतु नियुक्त की जाती थी, तो उसे गहनों से अंलकृत करके मंदिर की सेवा हेतु रखा जाता था।

गोपिका / रूद्रगणिका : वैसी देवदासियां, जिन्हें मंदिर में दी जानेवाली उनकी सेवाओं के एवज में एक तय राशि भेंट स्वरूप दी जाती थी। इन देवदासियों के पास अपनी कुछ निजी स्वामित्व वाली जमीन-जागीर भी हुआ करती थी, जिसके चलते इनका समाज में एक रूतबा हुआ करता था।

स्त्रियों को हमेशा ही माना गया एक ‘साधन’

ऋगवेद में हमें अविवाहित स्त्रियों की खरीद-बिक्री का उल्लेख मिलता है। ऋगवेद में ‘सदवर्णी’ का उपयोग वैसी स्त्रियों के लिए किया गया है, जो भुगतान के बदले में यौन-सुख देने की पेशकश करती थीं। वैदिक काल में ज़्यादातर वेश्याएं लाल वस्त्र पहनती थीं। उनके स्वर्णाभूषणों का रंग भी लाल होता था। संभवत: वे ऐसा खुद को राक्षसी प्रवृति वाले पुरुषों से बचाने के लिए करती थीं, क्योंकि लाल रंग ‘शक्ति’ का प्रतीक होता है।

उस समय देवताओं का मन-बहलाने एवं उनके दरबार की शोभा बढ़ाने के लिए देवताओं के राजा इंद्र के दरबार में अप्सराएं हुआ करती थीं, जो अत्यंत रूपवती होने के साथ ही नृत्य एवं संगीत में भी पारंगत होती थीं। उनके इस रूप-गुण का उपयोग कई बाद ऋषि-मुनियों के तप एवं संयम बल को जानने के लिए भी किया जाता है। ऐसी ही एक अप्सरा मेनका के बारे में कहा जाता है कि उसकी खूबसूरती को देख कर ऋर्षि विश्वामित्र भी अपना संयम खो बैठे थे। भविष्य में उन दोनों के संसर्ग के फलस्वरूप शंकुतला का जन्म हुआ, जो कि महान कवि कालिदास द्वारा लिखित नाटक अभिज्ञान शांकुतलम् की केंद्रीय नायिका थी।

जब आर्य भारत आये तब उन्होंने दरबार की शोभा एवं भव्यता बढ़ाने पर ज़ोर दिया। साथ ही उनके द्वारा अतिथि वेश्याओं की परंपरा शुरू की गई। उनके दरबार में अन्य राज्यों से जब कोई राजा-महाराजा या विशेष अतिथि आते थे, तब इन वेश्याओं को विशेष तौर से उनके मनोरंजन के लिए बुलाया जाता था। कई बार उन्हें मित्रता की सौगात स्वरूप उन राजाओं को सौंप भी दिया जाता था या फिर कभी खुद पर विजय प्राप्त करनेवाले राजाओं को घूस के तौर पर कोई राजा अपने दरबार की सबसे खूबसूरत वेश्या उन्हें दे देता था।

कई साम्राज्यों में कुछ बच्चियों को जन्म से राजा के संरक्षण के रखा जाता था। उन्हें बचपन से ही ज़हरीला भोजन और जड़ी-बूटी दिया जाता था। ये कन्याएं ही बड़ी होकर विषकन्या कहलाती थीं, जिनका उपयोग राजा अपने दुश्मनों को छल-बल से पराजित करने के लिए किया करता था।

महाभारत और रामायण काल में हमें वेश्याओं का विशेष रूप से उल्लेख मिलता है। इस काल में वे दरबार का एक महत्वपूर्ण अंग हुआ करती थीं। महाभारत काल में हमें पहली बार ‘हरम’ की जानकारी मिलती हैं, जिसमें अभिजात वर्ग के लोग अपनी रखैलों को रखा करते थे। पूरे महाभारत ग्रंथ में कुल 42 अप्सराओं का उल्लेख हमें मिलता है, जिनमें से उर्वशी, मेनका, तिलोत्तमा, रंभा और घृताची सर्वप्रमुख थीं। रामायण काल में इन्हें ‘गणिका’ कहा जाता था।

कौटिल्य ने पहली बार अपनी पुस्तक ‘अर्थशास्त्र’ में वेश्याओं के लिए व्यवहार के मानकों का उल्लेख किया। उन्होंने बताया है कि वेश्याओं का जीवन कैसा होना चाहिए। समाज को उनके साथ और उन्हें समाज के साथ किस तरह से व्यवहार करना चाहिए। कौटिल्य ने उनके कुछ निश्चित विशेषाधिकारों और कर्तव्यों के बारे में भी बताया है।

तीसरी सदी ईपू के विख्यात महर्षि वात्सायन ने अपनी कालजयी रचना ‘कामसूत्र’ में कई खूबसूरत वेश्याओं और उनके विलासितापूर्ण जीवन का उल्लेख किया है। इस काल में उन वेश्याओं के व्यापार का भी प्रचलन था, जिसके कुछ निश्चित नियम-कानूनों के बारे में भी वात्सायन ने चर्चा की है। उनके वर्णनानुसार उस काल में तीन प्रकार की वेश्याएं हुआ करती थीं, सामान्य, निजी, और संरक्षण प्राप्त।

मुगलकाल में वेश्यावृति (1526 -1857) अपने चरम पर रहा। इस काल में ऐसी महिलाओं को ‘तवायफ’ कहा जाता था और उनके द्वारा किये गये नृत्य प्रदर्शन को ‘मुजरा’ की संज्ञा दी गई। मुगलों ने नृत्य-संगीत एवं अन्य प्रदर्शनकारी कलाओं में निपुण महिलाओं को अपने दरबार में सम्मानित स्थान देकर वेश्यावृति को संरक्षित करने का काम किया था। कहते हैं कि जहांगीर के हरम (जहां वेश्याएं रहती थीं) में उसकी  करीब छह हज़ार रखैलें (mistresses) रहा करती थीं और उन सभी को पर्याप्त धन, सम्मान और अधिकार प्राप्त था। इस तरह भारत में प्रचलित वर्तमान वेश्यावृति को ‘प्राचीन पतन का ही आधुनिक रूप’ कहा जा सकता है।

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