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सुशासन बाबू बिहार की जनता के साथ मज़ाक क्यों कर रहे हैं?

नीतीश कुमार

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

बिहारवासियों को लेकर आमतौर पर यही सोचा जाता है कि अन्य राज्यों के लोगों के मुकाबले उनमें अधिक राजनीतिक समझ होती है। वैसे उनके लिए दबे ज़ुबान में यह भी कहा जाता है कि ये लोग लोकतंत्र के पर्व पर ‘जाति का प्रसाद’ चढ़ाते हैं। ज़ाहिर है पहली वाली लाईन से बिहारवासियों का सीना चौड़ा हो जाएगा लेकिन ‘जाति का प्रसाद’ वाली दूसरी लाईन सुनकर उनका मूड खराब होना भी जायज़ है।

यह सच है कि बिहारवासियों के मूड खराब होने वाली बात उनके नेताओं का चुनाव के दौरान बिंदास मूड में रहने का मुख्य कारण बन जाती है। इसलिए वोटरों से एकदम क्रांतिकारी सुधार की अपील तो नहीं की जा सकती लेकिन कम से कम जाति को छोड़ काम को देखकर वोट करने की आस तो की ही जा सकती है। लोकतंत्र ने जब आज भी आपके अधिकारों के अस्तित्व को बचाए रखा है, ऐसे में ज़रूरी है कि अगले चुनाव में जातिवाद को बढ़ावा देने वाले नेता को वोट देने से पहले एक बार विकास करने वाले नेता पर भी ध्यान दी जाए।

लोकतंत्र और राजनीति के दौर में जब जनता अपने नेता को ही भूलने लग जाए तब तो यह लोकतंत्र के साथ मज़ाक ही हो सकता है। वैसे मज़ाक तो आजकल बिहार के सुशासन बाबू और उनके नेता मिलकर बिहार की जनता के साथ कर रहे हैं। सत्ता पाने के लिए चुनाव में संघर्ष करने वाले नेता के सुशासन की परिभाषा पहले कुछ अलग ही थी और आज सत्ता पाने के बाद बदल सी गई है। आज सुशासन के नाम पर गंगा नदी से एके-47 निकलता है, महिला के साथ दिन-दहाड़े घाट किनारे बलात्कार हो जाता है, बच्चियों के साथ बालिका गृह में रेप व यौन शोषण हो जाते हैं और हत्याओं के बारे में क्या कहने। ऐसी शर्मसार करने वाली घटानाओं को सुशासन की परिभाषा बताकर सुशासन बाबू तो कुशासन तक को शर्मिंदा कर रहे है।

सुशासन बाबू के सुशासन से सहयोगी तक इतने परेशान हो गये हैं कि हाथ जोड़कर अपराधियों से अपराध ना करने की अपील कर रहे है। अब जब सत्ता के सहयोगियों का ही हाल ऐसा हो, तब बिहार की हालत कैसी होगी?

सत्ता पर काबिज़ नेता और विपक्षी दल आने वाले चुनावों में जीत को सुनिश्चत करने के लिए अभी से ही जोड़-तोड़ और जातिवाद की राजनीति में व्यस्त हो गए हैं। वे भूल गए हैं कि जिस जनता की अनदेखी कर वे अगले चुनाव के लिए जीत की खिचड़ी पका रहे है, उस खिचड़ी को पकाने के लिए उन्हें वापस उसी जनता के वोटों के चूल्हे की ज़रूरत होगी।

ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा, “ये ना मेरा गुंडा राज है, ना तेरा जंगल राज है, ये तो हम दोनों का सत्ता में सवार होने और बने रहने का अपना-अपना प्रयास है।”

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