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“क्या परंपरा के नाम पर करवा चौथ का व्रत महिलाओं पर थोपा जा रहा है?”

करवा चौथ

करवा चौथ करती महिला

कल रात सोशल मीडिया पर करवा चौथ के खिलाफ जब कुछ महिला साथियों का पोस्ट देखा, तब सच कहूं तो मुझे काफी अच्छा लगा। मेरा मानना है कि आधी आबादी के बीच वैचारिक चेतना को विकसित करने का प्रयास बुरा नहीं हो सकता। फिर उन महिला साथियों के ख्याल भी मेरे ज़हन में उभरने लगें जो शिक्षित, आत्मनिर्भर होने के साथ-साथ महिलाओं के तमाम सांस्कृतिक उत्सवों को उत्साह और उमंग के साथ मनाती हैं। थोड़ी देर के लिए मैं सोच में पड़ गया कि क्या मैं इन शिक्षित और आत्मनिर्भर महिलाओं को सांस्कृतिक तौर पर गुलाम मान लूं? जो महिलाएं सास्कृतिक परंपरा को वैचारिक चेतना से देखने का प्रयास कर रही हैं, क्या उनको भारतीय संस्कृति का विरोधी मान लूं?

सोचते-विचारते हुए मुझे लगा कि मैं आस्थाओं के सास्कृतिक उत्सवों वाले देश में आधी आबादी को एक खास तरह के चश्में से देखने की कोशिश कर रहा हूं, क्योंकि भारत जैसे देश में किसी चीज़ को अपनाना या बहिष्कार करना आधी आबादी के विवेक और इच्छाबल पर आधारित होना चाहिए। आधी आबादी का अपना चयन और हित ही इंसानियत की दिशा में बड़ा कदम माना जाना चाहिए। वैसे भी विविधता और मतभेद होने पर भी आधी आबादी का स्वतंत्र पक्ष नहीं छूटना चाहिए, क्योंकि अपने पक्ष को सुधारने व संभालने के लिए जहां तक हो सके  संवाद के ज़रिए सोचना ज़रूरी होता है। आधी आबादी के मध्य वैचारिक चेतना को विकसित करने का प्रयास महिला आंदोलनों ने ज़रूर किया  होगा, मगर वह पूरी तरह सफल नहीं हो पाया है। इसी वजह से परंपराओं को मानने के तर्क भी मज़बूत हैं और ना मानने के तर्क भी व्योम में हिचकोले खा रहे है।

सोशल मीडिया पर दोनों तरह के विचार बहुत सारी चीज़ें बयान करती हैं। महिलाएं जानती हैं कि अतीत में सांस्कृतिक परंपरा के नाम पर उनके साथ क्या-क्या होता रहा है। उनको यह पता है कि “तुम ही मेरे मंदिर, तुम ही मेरी पूजा” पर तुम मेरे देवता नहीं हो।

मौजूदा दौर में करवा चौथ का यह स्वरूप भी देखने को मिलता है जहां पति भी पत्नी के साथ यह व्रत सहने लगे हैं। रूढ़ किस्म की पुरुष मानसिकता को पुरुष समाज ने भी तिलांजली देना शुरू किया है।

यह सच है कि यह बदलाव सीमित है। भावी पीढ़ी इस बदलाव को मंज़िल तक ज़रूर पहुंचा देगी, क्योंकि परंपराओं का बोझ नई पीढ़ी को मंज़ूर नहीं है। परंपराओं को कायम रहने के लिए इस तरह के बदलाव को अपनाना ज़रूरी है, क्योंकि रूढ़ किस्म की मानसिकता को बढ़ावा देने वाली प्रथाओं के लिए मौजूदा आधुनिक भद्र समाज में कोई जगह नहीं है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि देशज सास्कृतिक उत्सव के इस आयोजन का दोहन बाज़ार ने कई तरीकों से किया है और उसकी अलग-अलग समाजशास्त्रीय व्याख्या भी हो सकती है। यहां तक कि सरकार ने भी करवा चौथ की थाली पर टैक्स का बोझ कम करके महिलाओं के साथ वोट बैंक की राजनीति की है।

इन सभी बातों के मध्य इस बात को भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि देशज सांस्कृतिक उत्सवों ने भारतीय समाज के सामासिक संस्कृति को गतिशीलता प्रदान करती रही है और आज भी कर रही है। हम यह नहीं भूल सकते हैं कि भारतीय संस्कृति के सास्कृतिक उत्सव सामाजिक-आर्थिक पहलुओं को भी रचते-बसते हैं। इस त्योहार का संबंध हमारी खेती-किसानी से भी है। जहां एक तरफ करवे में धान की नई फसल की बालियां खोंसी जाती हैं, वहीं दूसरी ओर कार्तिक माह में धान की फसल भी तैयार हो जाती है। प्रकृति के साथ मानवीय संवेदना और सांस्कृतिक जुड़ाव का सम्बंध भी एक समाजशास्त्रीय व्याख्या ही प्रस्तुत करता है।

मुझे तो लगता है आधुनिक आत्मनिर्भर महिलाएं जब पतिदेव को छलनी से देख रही होती हैं, तब कह रही होती हैं कि “बहुत ही पाप किया है रे तूने, छलनी में ना समाए तो क्या कीजे?” यह स्थिति अगर आधी-आबादी के अंदर एक दिन विकसित हो जाएगी, तब अलग किस्म की स्थिति देखने को मिलेगी। हालांकि इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता है कि आने वाले वक्ते में करवा चौथ के खिलाफ उठ रही आवाज़ों पर सोशल मीडिया में आलोचना ज़रूर होगी। आस्थाओं में भरोसा रखने वाले देश को अपनी सास्कृतिक संस्कृति को जीवित रखने के लिए अपने विचारों में आज नहीं तो कल आधुनिकता लानी ही होगी।

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