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“एक पत्रकार होने के नाते मैं डरा और सहमा हुआ हूं”

पिछले कुछ सालों से देश में ऐसा माहौल बनता जा रहा है जहां लगातार लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले पत्रकारों पर भी हमले कराए जा रहे हैं। आम लोगों को सच्चाई से महरूम रखने की पूरी कोशिश की जा रही है। पिछले कुछ वक्त से मीडिया संगठनों में भी जिस तरह की चुप्पी छाई हुई है, यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। यह एक तरह से मीडिया का कालांतर दौर है जहां संगठित ढंग से मीडिया को हाईजैक करने की कोशिश की जा रही है।

केन्द्र में सत्ता परिवर्तन होते ही मीडिया का एक बड़ा वर्ग अपने उस छुपे हुए एजेंडे पर उतर आया था जिसे वह वर्षों से अपने अंदर दबाए बैठा था। उनका यह एजेंडा आप कई टीवी डिबेट्स पर देख सकते हैं। 2014 के बाद देश में एक प्रकार से दहशत का माहौल बनाया गया। लव जिहाद, गौ-रक्षा, देशद्रोह का इल्ज़ाम और ऐसे ही तमाम उद्देश्यों वाले गिरोह अपने-अपने दड़बों से खुलकर निकल आये थे। उन्होंने देश में ऐसा माहौल तैयार कर दिया है जो दुनिया के किसी भी प्रदूषण से भी भयानक है।

हमने 1975 के दशक का वो आपातकाल भी देखा है जब लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर खतरा मंडराया था। उस समय भी देश के चौथे स्तंभ के सभी पहरेदारों ने मिलकर उस तानाशाही व्यवस्था को ऐसा आईना दिखाया था जिसके दुष्प्रभाव से काँग्रेस पार्टी आज तक उबर नहीं सकी। आज भले ही देश में आधिकारिक तौर पर आपातकाल लागू नहीं है लेकिन निष्पक्ष मीडिया के साथ जिस तरीके से सौतेला व्यवहार किया जा रहा है वह शर्मनाक है। इससे यह भी साफ हो रहा है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ एक बार फिर खतरे में है।

मौजूदा दौर में मीडिया की हालत काफी खराब हो चुकी है, जहां पैसे कमाने के लिए वे किसी भी हद तक के सांप्रदायिक अभियानो में शामिल होने को तैयार हैं। यह कोबरापोस्ट के स्टिंग में साफ तौर पर देखा गया था जब नामचीन मीडिया संस्थान सत्ताधारी दल के लिए चुनावी हवा तैयार करने के लिए राज़ी होते नज़र आए थे, उस वक्त भी भयानक चुप्पी छाई रही। अभी हाल ही में जब एबीपी न्यूज़ के संपादक मिलिंद खांडेकर से इस्तीफ़ा लिया गया, अभिसार शर्मा को छुट्टी पर भेजकर निकाला गया और तो और पुण्य प्रसून वाजपेयी को चैनल से निकाल दिया गया। उस वक्त भी मीडिया जगत में खामोशी सी दिखाई पड़ रही थी।

ऐसा डरा हुआ मीडिया मैं इमर्जेंसी के बाद पहली बार देख रहा हूं। ‘द एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ और ‘ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन’ भी मौन हैं। मेरा मन विचलित हो रहा है। एक पत्रकार होने के नाते मैं खुद डरा और सहमा हुआ हूं। अब तो लिखने से भी डर लगने लगा है, इसलिए मेरी फैमली भी कभी-कभी मुझे समझाती है।

पत्रकारों पर हो रही हिंसक घटनाओं के खिलाफ प्रदर्शन। तस्वीर प्रतीकात्मक है

इस दौर में पत्रकारों की महत्ता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों को जनता के सामने अपनी बात रखनी थी, तब भी उन्होंने प्रेस का ही सहारा लिया। आज पत्रकारों की किसी भी समस्या में कोई अपना सहयोग नहीं देता है। कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पत्रकारों पर जानलेवा हमले या उसके साथ दुर्व्यवहार करने वाले व्यक्तियों पर दो साल की कैद और पचास हजार के ज़ुर्माने जैसा कानून बनाने का अश्वासन दिया था लेकिन ऐसा कोई कानून अभी तक नज़र नहीं आया। लाख दावों के बावजूद भी पत्रकार पर निरंतर जानलेवा हमले हो रहे हैं। ना तो उत्तर प्रदेश में सरकार कुछ कर पा रही है और ना ही अन्य प्रदेशों में कोई पहल दिखाई दे रही है।

बिहार मे कुछ दिनों पहले दो पत्रकार को स्कॉर्पियो गाड़ी से बेरहमी से कुचल कर मौत के घाट उतार दिया गया। वहां पर भी अभी तक कुछ नहीं हुआ। वहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं, जो दल बदलने के अलावा कुछ नहीं करते। बीजेपी में जाते समय अंतरात्मा की आवाज़ सुनने वाले नीतीश बाबू आज कुछ नहीं बोलते।

मौजूदा दौर में स्थिति ऐसी बनती जा रही है जब राजनीतिक दलों के लिए सकारात्मक खबरें दिखाने के लिए कई मीडिया संगठनों के मालिकों या रिपोर्टरों को ऊंची कीमत तक दी जाती है।

अब वक्त आ चुका है कि हम सब मिलकर अपनी चुप्पी तोड़ दें। कब तक ज़ुल्म का शिकार होते रहेंगे? कब तक हम अपने साथियों को खोते रहेंगे? हमें एक होने की ज़रूरत है। अभी तक सत्ता पर काबिज़ होने वाले किसी भी राजनीतिज्ञ ने मीडिया के प्रति सकारात्मकता नहीं दिखाई।

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