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#MeToo: “आज मैं बोल रही हूं, आप भी बोलिए ताकि एक और लड़की को हिम्मत मिल सके”

बलात्कार, रेप, यौन उत्पीड़न, यौन-शोषण ये और इन जैसे तमाम शब्द लिखने, पढ़ने, बोलने और सुनने में जितने आसान लगते हैं, इनकी पीड़ा उतनी ही कठोर और गंभीर होती है, फिर चाहे वह मानसिक हो या शारीरिक। शरीर के घाव तो फिर भी समय के साथ भर जाते हैं (कुछ अपवादों को छोड़कर) लेकिन मन पर लगे घावों को वर्षों बाद भुला पाना मुश्किल होता है। खासकर तब जब यह किसी के ‘सम्मान’ और ‘इज्ज़त’ से जुड़ा हो।

पिछले कुछ समय से भारत में एक बार फिर से #MeToo की गर्म हवा बह रही है, जिसके बाद नाना पाटेकर, आलोक नाथ, एमजे अकबर, विकास बहल, वरुण ग्रोवर, गुरसिमरन खंबा, तन्मय भट्ट, मलयाली एक्टर मुकेश समेत कई नामी-गिरामी चेहरे सामने आ चुके हैं। इन तमाम चेहरों पर किसी-ना-किसी रूप में यौन-शोषण का आरोप लगाने वाली महिलाओं में बॉलीवुड, स्पोर्ट्स, जर्नलिज़्म, आर्ट एंड कल्चर आदि विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित हैं।

आगे #MeToo की यह आंधी और किस-किसको अपने साथ बहाकर ले जायेगी, यह तो आनेवाला वक्त ही बतायेगा। साथ ही, इनमें से किसकी बातों में कितनी सच्चाई है और कौन झूठ बोल रहा है, इसका फैसला करना भी पुलिस और कोर्ट का काम है। मैं फिलहाल इस संबंध में अपने साथ घटित हुई दो घटनाओं का ज़िक्र कर रही हूं। इन्हें पढ़ने के बाद बाकी निर्णय मैं आप पर छोड़ती हूं।

1. इनमें से पहली घटना वर्ष 2015 की है, जब मैंने दिल्ली के दरियागंज इलाके में स्थित एक बुक पब्लिशिंग कंपनी ज्वॉइन की थी। यह पब्लिशिंग कंपनी पीएनबी बैंक के बगल वाली गली में एक प्रसिद्ध शॉपिंग साइट के डिलिवरी स्टोर के ठीक बगल में स्थित है। मैंने मार्च 2015 में वह ऑफिस ज्वॉइन किया था। बड़े अजीब नियम-कायदे थे वहां के, जिनसे पहली बार मेरा पाला पड़ा था, जैसे- मेल और फीमेल स्टाफ्स के आने-जाने की टाइमिंग अलग-अलग थी, यहां तक कि वे एक साथ बैठकर लंच और टी-ब्रेक भी एन्जॉय नहीं कर सकते थे। ऑफिस में उनके बैठने की व्यवस्था भी अलग-अलग थी।

कुछ समय काम करने के दौरान मुझे पता चला कि ऐसा ‘लड़कियों की सुरक्षा’ के लिहाज़ से किया गया है, क्योंकि पूर्व के कई ‘कड़वे अनुभव’ कंपनी को झेलने पड़े थे।

खैर, उस ऑफिस में मुझे जो सीट दी गयी, उसके सामने तिरछी ओर के क्यूबिकल में कुछ डीटीपी ऑपरेटर्स लड़कों की सीटिंग थी। उनमें से एक लड़का, जो खुद को शायद ‘हीरो’ समझता था, उसने करीब 15-20 दिनों बाद मेरे आगे-पीछे चक्कर लगाना, मुझे लगातार अपनी केबिन से घूरना और अप्रत्यक्ष रूप से मुझपर कमेंट करना शुरू किया।

मैंने जब इस बारे में अपने कुछ सीनियर फीमेल साथियों को बताया, तो पता चला कि वह लड़का हर नई लड़की के साथ ऐसी हरकत किया करता है। कमाल की बात तो यह है कि ऑफिस के बाकी सारे स्टाफ्स यह सब देखने-सुनने के बाद भी कुछ नहीं कहते थे। इस वजह से कई लड़कियों ने अपना ब्रांच ही चेंज करवा लिया और कईयों ने तो जॉब ही छोड़ दी।

उन्होंने मुझे भी चुप रहने और उसकी हरकतों को अवॉय्ड करने की सलाह दी, क्योंकि उनके अनुसार वह कंपनी मैनेजमेंट का ‘मुंह लगा स्टाफ’ था। मैंने भी कुछ दिनों तक उनकी बात मान कर ऐसा ही किया पर शायद उस लड़के ने मेरी चुप्पी को मेरी कमज़ोरी समझ लिया। अब वह खुलेआम अपने क्यूबिकल में बैठकर ज़ोरों से मेरा नाम ले-लेकर उटपटांग बातें करता, गाने गाता और कमेंट करता।

करीब दो महीनों तक उसकी इन हरकतों को बर्दाश्त किया, उसे ऑफिस से बाहर मिलकर समझाने की कोशिश भी की पर वह अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आया।

आखिरकार, जब पानी सिर से ऊपर जाने लगा, तो एक दिन पूरे ऑफिस के सामने मैंने उसके केबिन में घुसकर उसे जमकर लताड़ लगायी। उसके बाद इस बात की शिकायत कंपनी के डायरेक्टर से कर दी। उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि मेरे मामले की जांच वुमेन सेल के समक्ष पेश की जायेगी, जिसकी हेड उनकी पत्नी और कंपनी की ज्वाइंट एमडी थीं।

मुझे थोड़ी उम्मीद जगी कि संभवत: एक महिला और कंपनी के उच्च पद पर आसीन होने के कारण वह मेरी परेशानी को समझेंगी पर आश्चर्य उन्होंने मुझे सपोर्ट करने के बजाय उल्टा मुझे ही कटघरे में खड़ा कर दिया! उनके अनुसार, “ज़रूर आपने कुछ ‘ऐसी-वैसी हरकत’ की होगी, तभी इस लड़के ने रिऐक्ट किया होगा, वरना आज चार सालों से वह इस कंपनी में कार्यरत है पर कभी उसके खिलाफ ऐसी कोई कंप्लेन नहीं आयी। अगले ही महीने इसकी शादी होने वाली है, ऐसे में भला यह जानबूझकर क्यों खुद को बदनाम करेगा”

उस महिला की दलील सुनकर और कंपनी का ढुलमुल रवैया देखकर अब तक मैं समझ चुकी थी कि वहां मुझे न्याय नहीं मिलने वाला इसलिए मैंने अगले ही दिन दरियागंज थाने में जाकर उस लड़के के खिलाफ कंप्लेन दर्ज करवायी। वहां की महिला थाना इंचार्ज ने मेरी परेशानी को समझा और उस लड़के से लिखित माफीनामा लिखवाने के साथ ही उस पर 30 हज़ार रुपये फाइन लगाया। इस घटना के बाद मैंने उस कंपनी से इस्तीफा दे दिया क्योंकि ऐसे घटिया माहौल में काम करने का मुझे कोई शौक नहीं रहा।

2.  दूसरी घटना, अभी पिछले साल पटना से रांची जाने के दौरान की है। मैं पटना-हटिया एक्सप्रेस (18623) के स्लीपर कोच में सफर कर रही थी। मुझे दरवाज़े के ठीक बगल वाली बोगी को छोड़ दूसरी बोगी में साइड लोअर सीट मिली थी। उस दिन कोई कॉम्पिटिशन एग्ज़ाम होने की वजह से ट्रेन में बड़ी भीड़ थी। जनरल टिकट वाले भी कई लोग स्लीपर क्लास में सफर कर रहे थे। बाथरूम जाने तक का भी रास्ता जाम था।

रात के करीब 1:00 बज रहे थे, बोगी की लाइट ऑफ थी पर बाथरूम के पास वाली लाइट से धीमी रौशनी आ रही थी। सीट पर सोये ज़्यादातर लोग नींद में खर्राटे भर रहे थे और नीचे या इधर-उधर बैठे लोग नींद में ऊंघ रहे थे। मैं भी अधनींदी अवस्था में थी, क्योंकि ट्रेन के सफर में अक्सर मुझे नींद नहीं आती। ट्रेन गया जंक्शन पर रुकी, एक प्रौढ़ व्यक्ति उस बोगी में चढ़ा और आकर मेरी सीट के कोने में बैठ गया। मैंने जब उसे मना किया और कहीं और जाकर बैठने के लिए कहा, तो उसने रिक्वेस्ट करते हुए कहा, “मैडम मैं बस एक-डेढ़ घंटे में उतर जाऊंगा। मुझे हज़ारीबाग तक ही जाना है। आप आराम से लेटिए, मैं बस एक कोने में बैठा रहूंगा।”

उसकी बात सुनकर और ट्रेन में भीड़ को देखते हुए मैंने उसे बैठने दिया। करीब आधे घंटे बाद वह खिड़की से टेक लगाकर बैठ गया। मैंने अपनी पैर थोड़ी-सी सिकोड़ ली। सोचा, एकाध घंटे की तो बात है, फिर पैर फैलाकर सोऊंगी। अचानक से मुझे अपने पैरों पर कुछ सरसराहट सी महसूस हुई। मैंने यह सोचकर कि कोई कीड़ा है, ज़ोर से अपना पैर झटक दिया। पता नहीं क्यों पर वह आदमी अचानक से सकपका गया और मेरे बिना पूछे ही अपनी सफाई देने लगा कि माफ कीजियेगा मैडम, ज़रा आंख लग गयी थी, तो शायद इसी वजह से मेरा हाथ फिसल गया होगा। मैंने ‘इट्स ओके’ कहकर दुबारा से अपनी चादर तान ली।

थोड़ी देर बाद फिर से मुझे वैसी ही सरसराहट महसूस हुई। मैंने कनखियों से देखा, तो वह आदमी ऊंघ रहा था (पर दरअसल वह ऊंघने का बहाना कर रहा था), मैं थोड़ा-सा और सिमट गयी। अगली बार फिर जब वैसा हुआ, तो मैं बिना हिले चुपचाप लेटी रही। जानना चाहती थी कि यह ‘नींद की गलती है’ या ‘जानबूझ कर की गयी बदमाशी’। मेरा शक सही निकला। वह आदमी एड़ी की ओर से मेरे सलवार के अंदर हाथ डालने की कोशिश कर रहा था।

मैंने ज़ोर का एक लात मारकर उसे आगे की ओर गिरा दिया और फिर तुरंत उठकर लाइट ऑन करके ज़ोर-ज़ोर से उसपर चिल्लाना शुरू कर दिया। मेरी आवाज़ सुनकर आसपास के सारे लोग भी जाग गये। जब सबको उसकी हरकतों के बारे में पता चला, तो कुछ लोग उसे मारने पर उतारू हो गये पर मैंने ही उन्हें मना किया और हज़ारीबाग से पहले कोडरमा स्टेशन पर ट्रेन रुकते ही उसे कंपार्टमेंट से बाहर करवा दिया।

इन दोनों घटनाओं को शेयर करने का मेरा मकसद मात्र यह बताना है कि महिलाओं को किन-किन तरह की यौन-प्रताड़नाओं से आये दिन दो-चार होना पड़ता है। मैं यह नहीं कहूंगी कि लड़के इससे अछूते हैं उनके साथ ऐसा-वैसा कुछ नहीं होता लेकिन हां, इतना ज़रूर है कि उनकी संख्या लड़कियों के मुकाबले कम है इसलिए इस मसले की ओर ध्यान देने और उचित कार्रवाई करने की सख्त ज़रूरत है।

साथ ही, मैं यह भी कहना चाहूंगी कि ऐसे किसी भी मामले का तत्काल विरोध करना कहीं ज़्यादा प्रभावी होता है, बजाय 10 या 20 सालों बाद ‘उसके’ खिलाफ शिकायत करना।

मैं मानती हूं कि जिन महिलाओं को ऐसे हादसों से गुज़रना पड़ता है, वे कई बार पूरी तरह से टूट जाती हैं, अपनी हिम्मत खो देती हैं और कई तो अपना मानसिक संतुलन तक खो बैठती हैं। ऐसे में उन्हें दोबारा से फिर वो हिम्मत, वो आत्मविश्वास और वो ताकत पाने में काफी वक्त लग सकता है।

फिर भी तत्काल प्रतिक्रिया जितनी प्रभावी होती है, उसकी तुलना में दीर्घकालिक प्रतिक्रियाओं का प्रभाव कम होता है। कई बार लोग उस पर भरोसा भी नहीं करते, जैसा कि फिलहाल तनुश्री या विनिता नंदा आदि के खुलासे के बाद कुछ लोगों की प्रतिक्रियाओं को देखकर लग रहा है। साथ ही, जो शिक्षित, जागरूक और संपन्न तबका है, अगर वह भी अपने साथ होनेवाले अन्याय के खिलाफ चुप्पी साध ले, तो फिर जो कमज़ोर, गैर-जागरूक और अशिक्षित तबका है, वह न्याय की उम्मीद भी कैसे कर सकता है।

इसलिए जागिए, उठिए और जितनी जल्दी हो सके अपने साथ हो रहे अन्याय का खुलकर विरोध कीजिए। ज़रूरत पड़े तो चीखिए, चिल्लाइए और लोगों की भीड़ इकट्ठी कीजिए। उन्हें भी बताइए कि आपके साथ क्या गलत हो रहा है और कौन है, जो ऐसा कर रहा है।

इससे वैसे बाकी लोगों को भी हिम्मत मिलेगी, जो किसी-ना-किसी वजह से अपने साथ हो रहे अन्याय का विरोध नहीं कर पा रहे हैं। अगर आप इस डर से चुप रह जाती हैं कि इससे आपके करियर को नुकसान पहुंच सकता है, तो पहले यह सोचिए कि आपका आत्म-सम्मान बहुमूल्य है या फिर आपका करियर? जिस करियर और रुतबे के बारे में सोचकर आप सब कुछ सहती रहती हैं, क्या अपने आत्म-सम्मान को खोकर आप उसका लुत्फ उठा पायेंगी? अगर आपको अपना जबाव ‘ना’ मिलता है, तो फिर विरोध करना ही आपके लिए सर्वाधिक उचित है।

याद रखें हमारे देश में लड़कियों की सुरक्षा के लिए तमाम तरह के कानून हैं, घरेलू हिंसा से सुरक्षा कानून, दहेज विरोधी कानून, कार्यस्थल में सुरक्षा संबंधी कानून, यौन उत्पीड़न के विरूद्ध कानून, बलात्कार के खिलाफ कानून लेकिन क्या फायदा इन कानूनों का अगर आप बोलेंगी ही नहीं। समय पर आवाज़ ही नहीं उठायेंगी, यह सोचकर मुंह पर ताला लगाये रखेंगी कि आपके साथ अन्याय करनेवाला व्यक्ति एक प्रभावी वर्ग से ताल्लुक रखता है, जो कि अपने पैसे और पावर के दम पर सबकुछ अपने फेवर में करवा सकता है।

तो भी मैं कहूंगी कि आप चुप ना रहें, क्योंकि आपकी एक चुप्पी आगे कई और की ज़िन्दगी को नर्क बना सकती है जबकि आपकी एक आवाज़ और कईयों को हिम्मत दे सकती है, जैसा कि #MeToo या इन जैसे अन्य अभियानों में देखने को भी मिल रहा है।

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