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क्या 2019 लोकसभा चुनाव में मोदी को वोट नहीं देंगे सवर्ण?

सवर्णों का आंदोलन

SC-ST एक्ट के खिलाफ सवर्णों का आंदोलन

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में जब मोदी लहर में भाजपा को प्रचंड बहुमत प्राप्त हुआ था तब उसमें सवर्ण वोटरों की भी बड़ी अहम भूमिका रही थी। सवर्णों को आमतौर पर भारतीय जनता पार्टी का पारंपरिक वोटर माना जाता है। या फिर यह भी कह सकते हैं, सवर्णों को लगता है कि भाजपा उन्हीं की पार्टी है लेकिन हाल फिलहाल के सामाजिक-राजनीतिक समीकरणों में यह अपनापन फिलहाल खिसकता नज़र आने लगा है।

हालिया घटनाक्रम में सवर्णों के अंदर यह आम धारणा बन रही है कि सरकार पिछड़ों (इसमें भी मुख्यतः अनुसूचित जाति वर्ग) को खुश करने के चक्कर में अगड़ी जातियों के हितों की अनदेखी करने पर तुली हुई है। हाल में पदोन्नति में आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने इस रोष को और बढ़ाने का काम किया है। इससे पहले SC-ST एक्ट पर उच्चतम न्यायालय के फैसले को पलटने के चलते देश में जगह-जगह सवर्ण आंदोलन चल ही रहा है। सवाल यह है कि अगर सवर्ण वोटर भाजपा से दूर चले जाएंगे तो वे आएंगे किसके करीब?

सवर्णों में वैसे तो भाजपा के खिलाफ नोटा का प्रयोग करने को लेकर बात चल रही है लेकिन पार्टियां और भी हैं जिनकी नज़र भाजपा के इस परंपरागत वोट बैंक पर है। हाल ही में छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्याें में भी ‘हाथ’ ने ‘हाथी’ इसलिए छोड़ दिया क्योंकि काँग्रेस बसपा का साथ देकर यह नहीं दिखाना चाहती कि वह सवर्णों के खिलाफ खड़ी है। जबकि, बसपा खुद सवर्णों के रोष को किसी तरह से भुनाने की जुगत में है। वहीं, भाजपा की कोशिश मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में ज़्यादा से ज़्यादा अनुसूचित जाति-जनजाति वोट खींचने की है।

इन राज्यों में तात्कालिक रोष में सवर्ण किस तरफ वोटिंग करेंगे यह कहा नहीं जा सकता। वे नोटा का भी बड़े स्तर पर प्रयोग कर सकते हैं। गौरतलब है कि नोटा ने मध्य प्रदेश के 2013 के विधान सभा चुनावों में लगभग साढ़े छह लाख वोट हासिल किए थे। तब कई प्रत्याशियों की जीत-हार के अंतर से ज़्यादा वोट नोटा पर पड़े थे। अगर बात 2019 के लोकसभा चुनाव की करें तब यह कहना भी गलत होगा कि बड़े पैमाने पर सवर्ण नोटा का प्रयोग करेंगे।

सवर्णों के सामने बड़ी मजबूरी भाजपा के अलावा कोई और विश्वसनीय विकल्प का ना होना है। भाजपा इस मजबूरी को बखूबी जानती भी है। शायद इसी वजह से भाजपा को विश्वास है कि अंतिम समय में सवर्णों को अपने हिसाब से समझा लिया जाएगा।

फिलहाल देश में पहले वाली मोदी लहर भी नहीं है और ऐसे में भाजपा अपने परंपरागत वोटरों के अलावा एससी-एसटी, पिछड़े, मुस्लिम महिलाओं आदि के हितों को लेकर संसद से सुप्रीम कोर्ट तक सक्रिय दिखाई दे रही है। वैसे भी पिछड़े वर्गों ने 2014 लोकसभा चुनाव के साथ ही उत्तर प्रदेश के 2017 के राज्य चुनावों में भाजपा को व्यापक समर्थन दिया है।

सरकार की गलत नीतियों के बावजूद भी सवर्ण वोट मोदी विरोध में इसलिए भी तब्दिल होने के कम आसार हैं क्योंकि सवर्णों को अब भी मोदी से कुछ उम्मीदें बांकी हैं। गुजरात विधानसभा चुनावों में जीएसटी को लेकर सूरत के व्यापारियों में कुछ इसी तरह का गुस्सा था लेकिन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने जब उनसे खुद मुलाकात की तब व्यापारी वोट भी भाजपा को मिला।

आज के राजनीतिक परिदृश्य में कोई भी पार्टी दलित-अल्पसंख्यक विरोध का ठप्पा लेकर नहीं घूम सकती। कहीं ना कहीं भाजपा और जागरूक फॉरवर्ड वोटर्स दोनों ही इस सच्चाई से वाकिफ हैं। भाजपा इस बात को भी अच्छे से जानती है कि वो सवर्णों को यह बात समझाने में सफल हो जाएंगी कि यदि उनका वोट भाजपा को नहीं जाएगा तब क्या उन पार्टियों को देंगे जिसकी खुद की छवि सवर्णों में अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और हिंदुत्व विरोध की रही है। वैसे भी भाजपा छवि गढ़ने और छवि बिगाड़ने की राजनीति में महारथी है।

सवर्णों को मालूम है कि भाजपा के अलावा उनका हित और कहीं सुरक्षित नहीं है और भाजपा का हिन्दुत्व वाला एजेंडा भी सवर्णों के हिन्दुत्व से सर्वाधिक मेल खाता है। इसके अलावा भाजपा भी जानती है कि रस्सी को इतना खींचना है जिससे खूंटा भी ना टूटे।

यही वजह है कि 26 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर उसकी प्रतिक्रिया काफी सधी रही है। वो पदोन्नति में आरक्षण का राजनीतिक लाभ लेने में मुखरता नहीं दिखाना चाहती। सुप्रीम कोर्ट ने भले ही अनुसूचित जाति वर्ग को नैसर्गिक आधार पर पिछड़ा माना है लेकिन साथ ही इस वर्ग में क्रीमी लेयर का सिद्धांत लागू कर मामले को पेचीदा बना दिया है। वहीं, पदोन्नति में आरक्षण लेने के लिए अभी भी वंचित वर्ग के प्रतिनिधित्व के आंकड़े सरकार को पेश करने होंगे। ऐसे में भाजपा ज़मीनी तौर पर आरक्षण को लागू करने की कोई कोशिश कम-से-कम लोकसभा चुनावों तक तो नहीं करना चाहेगी।

इस तरह से भाजपा के पास दलित और सवर्ण दोनों को साधने की गुंजाइश है। एससी-एसटी एक्ट के ज़रिए वो दलितों में एक सकारात्मक संदेश देने का काम पहले ही कर चुकी है। हां, फिलहाल सवर्ण रूठा हुआ है लेकिन यह नाराज़गी की वो हद नहीं है जिससे उनके और भाजपा के संबंध पूरी तरह से टूटने का आधार बन जाए।

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