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“शाम होने पर मैं अपने शहर में अकेले बाहर नहीं जा सकती”

मैंने अपने शहर को बढ़ते हुए देखा है। मेरा शहर एक बच्चे की तरह था जब मैंने इसे छोड़ा था। आज यह अपनी युवावस्था में है। युवावस्था में अगर इंसान को सही मार्ग दर्शन ना मिले तो वो गलत दिशा में भी चला जाता है। कुछ ऐसा ही मेरे शहर के साथ हो रहा है। एक शहर उसके लोगों से बनता है। शहर के गलत दिशा में जाने का मतलब है वहां के लोगों का गलत दिशा में जाना।

जब मैं घर से निकलती हूं तो अधेड़ उम्र के आदमी सड़क पर मेरे बगल से बाइक नचाकर कमेंट करते हुए जाते हैं। ऐसा एक ज़माने से होता आ रहा है। पहले मां मुझे नुक्कड़ पर बैठे ऐसे लोगों को नज़रअंदाज़ करने को कहती थीं। उस वक्त मुझे लगता था कि अच्छी पढ़ाई करने के बाद यह सब नहीं झेलना पड़ेगा लेकिन जब भी मैं अपने शहर आती हूं, मुझे महसूस होता है कि समय के साथ इस तरह के घटिया लोगों की तादाद बढ़ती गई है। हां, यह अलग बात है कि अब इन चाज़ों से कुछ खास फर्क नहीं पड़ता अब तो आदत सी हो गई है।

इस शहर की गलियों में एक लड़की अंत में एक बेचारी लड़की बनकर रह जाती है। शाम होने के बाद मैं अकेले बाहर नहीं जा सकती। अगर पहले से बाहर हूं, तो किसी दोस्त के साथ ही वापस आने की सलाह मिलती है।

जब मेरे पुरुष साथी मुझे घर छोड़ने आते हैं तो मोहल्ले के लोग ऐसे घूरकर देखते हैं जैसे मैंने कोई गुनाह कर दिया हो। शायद मेरा ज़िक्र वो अपनी चाय की चुस्की के साथ भी करते हों।

यह शहर कई मायनों में विकसित हो चुका है पर अफसोस इस बात का है कि लोगों की मानसिकता आज भी विकसित नहीं हुई। महज़ आर्थिक विकास तो काफी नहीं। सबसे बड़ी बात यह है कि लोगों को पता है कि गलत हो रहा है पर लोग विरोध करने से कतराते हैं। अंत में इन सबका खामियाज़ा मासूम बच्चियों और लड़कियों को भुगतना पड़ता है।

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