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“दोस्तों ने कहा मुस्लिम लड़का है, इसे पढ़ाने से कुछ बदलने वाला नहीं”

यह कोई कल्पना से पैदा हुआ किस्सा नहीं है। यह एक सच्ची घटना का आंखों देखा विवरण है। वह घटना जो मेरे साथ घटी और जिसने समाज को देखने का मेरा नज़रिया बदल दिया।

आप चाहें तो इसे एक कहानी समझकर पढ़ सकते हैं। मुझे उम्मीद है, इसे पढ़कर आप भी एक बार यह सोचने को मजबूर हो जाएंगे कि इस समाज को धर्म, जाति, पंथ के नाम पर कौन बांट रहा है।

यूं तो सितम्बर का महीना चल रहा था मगर कैफियत जून की गर्मियों जैसी थी। दिन के वक्त सूरज ऐसा कहर ढहाना कि कभी-कभी ऐसा लगता, जैसे सूरज की किरणें किसी मैग्नीफाइंग ग्लास से छनकर धरती को चूम रही हैं।

ऐसे ही एक दोपहर को मैं हरिद्वार स्थित गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में आयोजित कवि सम्मेलन में शामिल होकर अपने कॉलेज लौट रहा था। उत्तराखंड परिवहन निगम की बस यात्रियों से खचाखच भरी हुई थी। लोग बेतहाशा गर्मीं से पिघले जा रहे थे और अपने हाथ और रुमाल से बहता पसीना पोंछने में मसरूफ थे। गुरुकुल कांगड़ी से अपने कॉलेज तक का लगभग 20 किलोमीटर का सफर, किसी आग के दरिया से गुज़रने के माफिक चुनौतीपूर्ण मालूम हो रहा था।

बहरहाल, जब मैं आधे घंटे के बाद कॉलेज के गेट पर पहुंचा तो बुरी तरह पसीने से तरबतर हो चुका था। गला प्यास के मारे सूख रहा था। मैंने बाकी यात्रियों को किनारे करते हुए जगह बनाई और बस से उतरा। बस से उतरकर, मैं सीधा कॉलेज के सामने वाले ढाबे पर पहुंचा। छप्पर के साये में बना ढाबा किसी पुरानी जर्जर झोपड़ी जैसे नज़र आता था। वही चाय, सिगरेट, बन आमलेट, बन मक्खन जैसे चलते फिरते नाश्ते की सुविधा मौजूद थी। चूल्हे से थोड़ी दूर पर गन्ने के जूस की मशीन सुबह से देर शाम तक आवाज़ करती हुई चलती रहती थी।

मैंने टूटी-फूटी कुर्सी पर फटाफट से तशरीफ जमाई और दो गिलास गन्ने के रस का ऑर्डर दिया। जब तक गन्ने का रस तैयार होता, मेरे कुछ मित्र जो पास में ही सिगरेट के धुंए से छल्ले बनाने का करतब कर रहे थे, मुझे अकेला देखकर मेरे पास आएं। उन्होंने मेरे कपड़ों (कुर्ते-पायजामे) को देखकर पूछा कि क्या मैं किसी विशेष आयोजन से आ रहा हूं? मैंने उन्हें कवि सम्मेलन के बारे में बताया।

इतने देर में एक लड़का, जिसकी उम्र तकरीबन 10 साल होगी अपने हाथों में गन्ने के रस के दो गिलास लेकर मेरे पास आया। उसने मुझे गन्ने के रस के गिलास थमाए और जाने लगा।

इससे पहले वो लड़का जाता, मेरे एक दोस्त ने उसे आवाज़ देते हुए रोक लिया। फिर दोस्त ने उस लड़के को बुलाया और हमारे साथ बैठने के लिए कहा। इसके बाद मुझसे मुखातिब होते हुए दोस्त ने बोला इनसे मिलो पाण्डेय जी, यह है जनाब मोहम्मद सावेज। इन्हें शायरी और फिल्मों से बेइंतहा मोहब्बत है।

दोस्त की बात सुनकर मैं चौंका और उस लड़के को गौर से देखने लगा। इतने में एक दूसरा दोस्त बोला पाण्डेय जी, आप इतने लोगों को गाना और शायरी सुनाते हैं, कुछ इस बच्चे के लिए भी हो जाए। मैं दोस्तों की गुज़ारिश ठुकरा ना सका और मैंने तरन्नुम में कुछ अशआर पढ़े।

सभी को शेर पसंद आए और सबने तालियां बजाई। वो लड़का जिसका नाम मोहम्मद सावेज था, मुझे लगातार देखकर मुस्कुरा रहा था। मैंने उसकी तरफ तवज्ज़ों देते हुए उससे कई सवाल किए। छोटी सी गुफ्तगू से मालूम हुआ कि वह यहीं ढाबे के पीछे वाले खेत में बने दो कमरों के घर में रहता है। घर में माता-पिता और छह भाई-बहन हैं। वह घर में सबसे छोटा है, मदरसे में पांचवी जमात में पढ़ता है और मदरसे की छुट्टी के बाद यहीं अपने भाइयों के साथ ढाबे पर काम करता है।

इसके अलावा उसने बताया कि उसे शायरी, गानों और फिल्मों के बहुत शौक हैं। अजय देवगन उसके पसंदीदा अभिनेता हैं। बाकी पढ़ना उसे अच्छा लगता है। हां, भारत के और बच्चों की तरह अंग्रेज़ी में हाथ ज़रा तंग है। जब बातचीत पूरी हुई और मैं वापस जाने लगा तो उसने मुझसे कहा कि मैं उससे मिलने आता रहूं और गाने, शायरी सुनाता रहूं।

खैर, उससे मिलने का वादा करके मैं वापस आ गया। लौटने के बाद मैं पूरी शाम उसके बारे में ही सोचता रहा। मेरे मन में यह ख्वाहिश उठी कि मुझे उसके लिए कुछ करना चाहिए। इन्हीं सबमें मुझे यह ख्याल आया कि मुझे सप्ताह में दो-तीन दिन, उसे अंग्रेज़ी पढ़ाने जाना चाहिए। बस मैंने ठान लिया कि मैं ऐसा ही करूंगा।

मैंने अगले दिन रुड़की जाकर पांचवीं क्लास में पढ़ाई जाने वाली अंग्रेज़ी विषय की पाठ्यपुस्तक खरीदी और सीधा सावेज से मिलने ढाबे पर पहुंचा। मुझे देखते ही सावेज मेरे करीब आया और मुस्कुराते हुए बोला भैया आज भी कुछ बढ़िया सा सुना दो।

मैंने उससे कहा कि मैं उसे ज़रूर शायरी सुनाऊंगा मगर मेरी एक शर्त है, फिर मैंने उसे अंग्रेज़ी पढ़ाने वाली योजना के बारे में बताया। मेरी बात सुनकर वो फौरन राज़ी हो गया। तय किया गया कि हर मंगलवार और बुधवार मैं उसे अंग्रेज़ी पढ़ाया करूं।

बहरहाल, सिलसिला शुरू हुआ और मैं सप्ताह में दो दिन उसे अंग्रेज़ी पढ़ाने जाने लगा। इस बीच कई नकारात्मक स्वर भी उठे। कुछ दोस्तों ने कहा कि ये मुसलमान लोग दर्जन के हिसाब से बच्चे पैदा करते हैं और फिर छोटी उम्र में ही काम पर लगा देते हैं। मेरे इस तरह एक बच्चे को पढ़ाने से कुछ नहीं बदलने वाला।

खैर, मैंने उनकी बातों को अनसुना किया और सावेज को पढ़ाने जाता रहा। इस बीच सावेज का बड़ा भाई अब्दुल भी मुझसे अंग्रेज़ी पढ़ने आने लगा। उसने भी मदरसे से पढ़ाई शुरू की थी और चौथी जमात आते-आते छोड़ दी थी। यह सब होता रहा और 2 महीने गुज़र गये।

इस बीच हरिद्वार में सर्दी का मौसम आ गया। हरिद्वार को लेकर यह मशहूर है कि जितनी चिलचिलाती यहांं गर्मी होती है, उतनी ही कड़कती सर्दी का भी मौसम होता है। अब कुछ बदपरहेज़ी का असर था और कुछ हॉस्टल लाइफ की बेफिक्री थी, मुझे भयंकर खांसी-ज़ुकाम ने अपनी गिरफ्त में ले लिया। मैं बिस्तर से उठने में भी असमर्थ हो गया। इसके चलते मैं सावेज को पढ़ाने ना जा सका। मुझे हर दिन चिंता रहती कि सावेज मेरा इंतज़ार करता होगा।

ऐसे ही एक शाम मैं अपने हॉस्टल के कमरे में कंबल ओढ़कर सोया था कि अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई। मैंने जैसे-तैसे हिम्मत करके दरवाज़ा खोला तो सामने सावेज को खड़ा पाया। वह हाथ में स्टील की एक बाल्टी लिए खड़ा था। मैंने उसे अंदर बुलाकर अपने बिस्तर पर बैठाया और उसके आने का कारण पूछा।

उसने मुझे बताया की वह मेरा इंतज़ार कर रहा था और इस बीच उसने मेरे एक दोस्त से मेरे बारे में पूछा। जब उसे और उसके घरवालों को मेरी तबीयत के बारे में पता चला तो उन्होंने मेरे लिए भैंस का गर्म दूध भेजा था। सावेज से यह बात सुनकर मैं बहुत भावुक हो गया। मैंने उससे दूध लाने के लिए शुक्रिया कहा और इस वादे के साथ रुखसत किया कि मैं जल्दी ही उसे पढ़ाने आऊंगा। इसके बाद वह पांच दिनों तक रोज़ स्टील की बाल्टी में गर्म दूध लाता रहा और मैं सप्ताह भर में ठीक हो गया।

उसके बाद मैंने उसकी ज़िंदगी को लेकर एक कहानी बुनी और उसपर एक शॉर्ट फिल्म बनाई, जिसे कॉलेज के एक समारोह में प्रदर्शित किया गया। इसका असर यह रहा कि कॉलेज की एक समाजसेवी संस्था पंखुरी ने जो गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए कार्यरत है, उसने सावेज को पढ़ाने का ज़िम्मा लिया।

सावेज भी अचानक मिली तवज्ज़ों और खुद को फिल्मी परदे पर देखकर खुश था। अगले तीन महीने, जब तक मेरी बीटेक की पढ़ाई चलती रही मैं सावेज को पढ़ाता रहा। मैं सावेज जैसे बच्चों के लिए क्या कर सका मुझे नहीं मालूम मगर मेरे प्रयास ने सावेज जैसे बच्चों के मन में एक उम्मीद पैदा की कि इस समाज में ऐसे लोग हैं जो उसकी ज़िंदगी और उसके भविष्य की फिक्र करते हैं।

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