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लड़कियों का जिस्म सेक्स ऑब्जेक्ट नहीं है

हम सभी रोज़ ही सोशल मीडिया, न्यूज़ चैनल्स, अखबारों में महिला अपराधों से जुड़ी खबरें देखते रहते हैं। खबरों में बलात्कार की खबरें प्रमुख होती हैं। छोटी बच्चियों से लेकर, बूढ़ी महिलाओं तक के रेप हो रहे हैं। हर दिन भयानक घटनाएं सामने आ रही हैं। कभी स्कूल, कॉलेज में तो कभी नारी निकेतन में महिला यौन उत्पीड़न के मामले सामने आ रहे हैं। हमको ऐसा लगता है कि अचानक से यह मामले बहुत बढ़ गए हैं। इन घटनाओं के लिए हम लड़कियों के छोटे कपड़ें, उनके देर रात घूमने-फिरने जैसे वाहियात कुर्तक देकर अपने चेहरे और समाज का नंगा सच छिपाने की कोशिश करते हैं। किसी को फ़ुर्सत नहीं है कि वो इन यौन अपराधों की जड़ तक जाने की कोशिश करे। मैंने महसूस किया है कि जैसे 26 जनवरी, 15 अगस्त को देश-प्रेम, ईद-उल-अज़हा को पशु प्रेम और दीवाली पर लोगों का प्रकृति प्रेम हिलोरे मारता है, ठीक उसी तरह जब कोई महिला सुरक्षा से जुड़ी घटना होती है तो हमारे भीतर का बुद्धिजीवी जाग उठता है स्त्री विमर्श का झंडा बुलंद करने के लिए। सब राजधानी एक्सप्रेस मोड में पिल जाते हैं और फिर शीघ्रपतन के माफिक फौरन ठंडे भी हो जाते हैं। बदलता कुछ नहीं। इस दौरान जो बातें कही या लिखी जाती हैं, वह उस इंसान तक नहीं पहुंचती, जिसके सुधार या बदलाव की कोशिश हो रही है। वो तो तवज्जो भी नहीं देता इन सब बातों को और कहीं पढ़ भी ले तो सिवाय हंसी में उड़ाने के कोई नियति नहीं होती उसकी नज़र में इन विचारों की। मैं इस लेखक में कुछ गम्भीर बातें लिखना चाहूंगा जो आपको शायद इस समस्या की बुनियाद तक लेकर जाएगी। इससे आपको समझ में आएगा कि बलात्कार क्यों होते हैं। भारत एक महान देश है, ये बातें हम सभी बचपन से सुनते आए हैं। मगर इस कथन के पीछे जो तथ्य छिपाए गये हैं वो बहुत बदसूरत और डरावने हैं। दरअसल सच छिपाने, सत्य दबाना ही हमारी परम्परा बन गई है। अगर शुरुआत से शुरू करें तो चाहे वो देवराज इंद्र की सभा में मन बहलाती अप्सरा हों या ऋषि मुनियों की तपस्या खंडित करने के लिए भेजी गयी रूपवती स्त्रियां। दोनों ही जगह औरत हमें एक पुरुष को बहकाने और उसका दिल बहलाने वाली वस्तु नज़र आती हैं। आगे बढ़ने पर देवदासी की परम्परा हो, नगरवधू का चलन हो या फिर वैश्यावृति की शुरुआत हो। हर बात का बीज इस भाव में छिपा है कि औरत पुरुष के भोग, विलास, मनोरंजन का साधन है। इसके बाद हम सिनेमा में देखें तो शुरू से ही फिल्मों की कमाई के लिए औरतों के अंग प्रदर्शन पर ज़ोर दिया गया। सिल्क स्मिता का जन्म यही से होता है। फिल्मों में आइटम नंबर की परम्परा हो बलात्कार के रोमांचित सीन दोनों की बुनियाद यही थी कि इस बहाने पुरुष दर्शक आकर्षित होंगे और क्योंकि उस समय पुरुषों को ही सिनेमा देखने की इजाज़त थी इसलिए फिल्म की कमाई के लिए ये हथकंडा कारगर साबित हुआ। औरत को जमकर सेक्स ऑब्जेक्ट की तरह पेश किया गया। थोड़े आगे चलने पर जब हम टीवी के विज्ञापनों पर नज़र डालते हैं तो हमें दिखता है कि यहां भी औरत का ऑब्जेक्टिफिकेशन बदस्तूर जारी है। पुरुष मॉडल साबुन, शैम्पू, तेल, शेविंग क्रीम, फेयरनेस क्रीम, फेसवॉश, हेयर जेल, हेयर ऑयल, दंतमंजन, परफ्यूम, डियो, जींस, कमीज़, चड्डी -बनियान, पान-मसाला, माउथ फ्रेशनर, मोटरसाइकिल, कार जैसे अस्त्रों का इस्तेमाल करके सिर्फ एक लक्ष्य की पूर्ति में लगा हुआ है। वो लक्ष्य है किसी भी कीमत पर लड़की का जिस्म हासिल करना। जो ऐड जितना मज़बूती से ये यकीन दिलाने में कामयाब रहेगा कि इसके इस्तेमाल से लड़की पट जाएगी, वो उत्पाद उतना ही ज़्यादा पुरुषों द्वारा खरीदा जाएगा। कुल मिलाकर ये प्रसार प्रचार हुआ कि एक ओर यौवन से भरपूर युवा का सबसे बड़ा भटकाव औरत है और दूसरी तरह उसके जिस्म को हासिल करना उसका सबसे बड़ा मकसद। इसके अलावा घर, परिवार में औरतों का कितना सम्मान है इस पर भी बात होनी चाहिए। शराब पीकर या बिना पिए भी कितने मर्द अपनी औरतों के साथ गाली-गलौच, मार-पीट करते हैं इस आकड़े पर भी गौर किया जाए। लड़कियों के साथ होने वाले बाल यौन शोषण में कितने लोग उनके अपने घर परिवार के होते हैं इसका आंकड़ा भी देखा जाए। पुरुषों और औरतों के आपसी संवाद में भी कितनी मां-बहन की गालियां आती हैं ये भी गौर करना चाहिए। इसके बाद इस विषय की चर्चा कितनी होती है और कितने लोग इस उत्पीड़न की आवाज़ बनते हैं, इसका जवाब आप मुझे नहीं अपने आप को दीजिए। हर मनुष्य अपने जन्म के वक्त एक कोरा कागज़ होता है. जैसे-जैसे वो बड़ा होता है उसके आस-पास के वातावरण का उसके ऊपर प्रभाव पड़ता है और यही से उसकी नैतिकता, बिलीफ सिस्टम, सोच बनती है। वो जिस तरह अपने आस-पास की औरतों को और उनके साथ होने वाले सलूकों को देखता है उन्हीं से उसके मन में औरतों के प्रति विचार बन जाते हैं। अब एक युवा होता लड़का जब टीवी, फिल्म, घर, परिवार, समाज के ज़रिये औरतों का चित्रण देखता है तो आप उम्मीद लगाते हैं कि उसके मन में कैसे छवि बनती होगी। इसका उत्तर स्वयं से पूछिए। इसी समाज में औरतों के मासिक धर्म और उनकी शौचालयों की ज़रूरतों को लेकर फिल्म बनानी पड़ रही है। ये है आज़ादी के बाद के 70 साल का हासिल। लड़कियों का स्कूल ड्रॉप आउट हो या उनकी जल्दी शादी ये मुद्दे अभी भी मुंह बाहे खड़े हैं। उसके बाद एक ऐसे समाज में जहाँ सेक्स जैसे मुद्दे को सदियों से हीन और पतित समझकर दबाया गया, वहां इस तरह के विमर्श में कौन भाग लेगा और जैसे कि निश्चित है कि दमन का भविष्य आक्रमक होता है ठीक उसी तर्ज़ पर कामनाओं, कुंठाओं और वासनाओं का दमन ही आज के बलात्कारों और महिला अपराधों के लिए ज़िम्मेदार है। अब क्योंकि हम सड़े गले बदबूदार समाज को देख नहीं सकते इसलिए उसके ऊपर एक पर्दा डालना हमारी मजबूरी है। इसके लिए हमने दुर्गा पूजा, कन्या पूजन, औरत देवी होती है, मां के पैरों में जन्नत होती है जैसी हिप्पोक्रेसी से भरे कथानक गढ़ें हैं.अगर ऐसा नहीं है तो कैसे १ साल की बच्ची से लेकर 70 साल की बच्ची का रेप हो रहा है.कैसे बच्चियां देह व्यापार में अभी धकेली जा रही है.कैसे घरेलू हिंसा और सड़कों पर महिलाओं का उत्पीडन अब भी जारी है.कैसे शेल्टर होम में लड़कियों का उत्पीड़न हो रहा है .इसका जवाब मुझे मत दीजिए, अपने आप से पूछिए. अब सवाल ये है कि हर तरफ जो औरतों का सेक्सुअल ऑब्जेक्टिफिकेशन हो रहा है, जो घर परिवार में घरेलू हिंसा हो रही है, जो नारीवाद के नाम पर खोखली तमाशाई हो रही है इसके विरूद्ध कितने लोग किस स्तर पर आवाज़ उठा रहे हैं. इसके साथ ही हमारा स्टैंड बहुत सेलेक्टिव होता है.किसी खास मुद्दे पर हमारी अंतरात्मा जग जाती है और कहीं वीभत्स अपराध होने पर भी हम आँखें मूंदें रहते हैं. अभी कुछ दिन पहले बिहार में एक औरत को सरे आम सडक पर नंगा करके घुमाया गया.कितने लोगों ने इस बात पर फेसबुक स्टेटस रखा वो खुद से देखें.जिन्होंने एक स्टेटस रखकर अपनी फॉर्मेलिटी निभा ली वो भी देखें.एक पोस्ट के अलावा अगर कही कोई कैंडल मार्च, कोई विमर्श या किसी तरह का आक्रोश फेसबुक पर दिखा हो तो बताएं. मैं सोचता हूँ कि एक औरत को नंगा करके सडक पर घुमाया जाना,कैसे  पिछड़ जाता है और विमर्श का मुद्दा नहीं बन पाता अंत में ये ही कि जब तक बुनियाद सही नहीं होगी, आप सोशल मीडिया पर कितना ही बौद्धिक आतंकवाद मचा लें, नतीजा शून्य ही रहेगा.

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