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“इन वजहों से मैं खुद को देशभक्त नहीं मानता”

मेरे लिए यह तय कर पाना थोड़ा मुश्किल हो रहा है कि आखिर किस घटना ने देश को ज़्यादा नुक्सान पहुंचाया है। एक विश्वविध्यालय के कुछ छात्रों द्वारा किसी देश और व्यक्ति विशेष के सम्बन्ध में लगाये गए नारों ने या एक जाति विशेष द्वारा आरक्षण की मांग के लिए किये गए देशव्यापी आन्दोलन ने। जिस मुद्दे पर बातचीत हो सकती थी वहां लात-घुसे चलाये हमने और जिस घटना पर सख्ती दिखाई जानी थी वहां घुटनों के बल हो गए।

पहली घटना-

2016, मैं उत्तराखंड ‘संपर्क क्रांति’ रेलगाड़ी से दिल्ली पहुंचने ही वाला था कि फोन पर अंग्रेज़ी में एक सन्देश आया, उसका लब्बोलुआब यह था कि कुछ प्रतिकूल घटनाओं के चलते दिल्ली से रेवाडी की अगली सभी ट्रेनें रद्द कर दी गयी थीं। जब इधर-उधर पता किया तो कारण था एक खास समुदाय द्वारा ‘आरक्षण की मांग’। यहां ध्यान रहे कि यह आन्दोलन आरक्षण होने या ना होने की अवधारणा पर नहीं था, वरण एक अन्य जाति द्वारा आरक्षण की मांग पर था।

आरक्षण की मांग देश में अलग-अलग जाति और समुदाय के लोग समय-समय पर करते रहे हैं मगर विगत कुछ वर्षों में यह मांग हिंसक रूप लेती जा रही है। बड़ी मात्रा में सार्वजनिक और निजी सम्पतियों को नुकसान पहुंचाना, राजमार्गों-रेलमार्गों को रोकना, दफ्तरों-बाज़ारों में तोड़फोड़, पुलिस-प्रशासन के टकराव, गोलीबारी आदि अब इस तरह की मांग के सामान्य ‘साधन’ हो गए हैं। इन सभी घटनाओं में कुछ लोगों की अकाल मृत्यु होना भी अब सामान्य सी ही बात है। वो अपनी जाति की रक्षा और उसके बेहतर भविष्य के लिए ‘शहीद’ हो जाते हैं।

आरक्षण की मांग या अपनी जाति-समुदाय के हितों के लिए अन्य किसी भी तरह की मांग की आवाज़ उठाना, अपनी कोई असहमति दर्ज करवाना या हड़ताल करना हमारा संवैधानिक अधिकार है मगर इस अधिकार की आड़ में हम कब अपनी हदें लांघकर दूसरे लोगों के हितों को नज़रअंदाज करने लगते हैं, हमें पता भी नहीं चलता है।

सभी अपना-अपना जाति धर्म निभाते हुए अपनी-अपनी जाति का साथ देते हैं या उन्हें देना पड़ता है। जाति के नाम पर देश की जनता का ध्रुवीकरण होने लगता है। आखिर ‘जातिद्रोही’ कौन बनना चाहेगा। अन्य जातियां भी पक्ष या विपक्ष में उठने लगती हैं। अब ऐसी स्थिति में अक्सर देश गौण और जाति सर्वोपरि हो जाती है। हमारा राष्ट्रवाद भी जातिवाद के नीचे कही दम तोड़ने लगता है।

इस घटना से दिल्ली थम सी गई थी। जयपुर, नारनौल, आगरा, अम्बाला और पानीपत जाने वाले सभी रास्ते और रेलमार्ग बंद थे। दिल्ली के सभी रेलवे स्टेशनों पर आज लगभग दस गुना अधिक भीड़ थी। किसी को नहीं पता था कि क्या किया जाए? अब कहां जाया जाये? रेलवे अधिकारियों के पास भी कोई निश्चित सूचना नहीं थी। दिल्ली के बीकानेर हाउस बस स्टैंड के बाहर कुछ टैक्सी वाले बीस हज़ार रुपये में एक टैक्सी जयपुर पहुंचाने का वादा कर रहे थे।

सामान्य रूप से यह किराया 4 से 6 हज़ार रुपये तक होता है। हवाई यात्रा का किराया भी लगभग 10 गुना तक बढ़ गया था। बहुत से लोगों ने इन विकल्पों को अपनाया भी। आखिर कुछ की मजबूरी थी और कुछ मजबूरी को जानते थे। आखिर सभी के लिए आन्दोलन के अपने-अपने ‘मायने’ और ‘फायदे’ होते हैं।

हाल ही के वर्षों में राजस्थान के गुर्जर-मीना, फिर गुजरात में पटेलों ने और अब हरियाणा में जाटों ने जो कुछ भी किया उससे देश की एक बड़ी आबादी को भारी नुकसान का सामना करना पड़ा है। हाल यह है कि इन सभी घटनाओं से पीड़ित जनता को ‘आरक्षण’ शब्द से ही नफरत होने लगी है और आम जनता अब इस शब्द से ही बिदकने लगी है।

परिणाम यह हुआ कि आरक्षण बंद के विरोध में भी एक जनता का ध्रुवीकरण होने लगा। उनके अनुसार इन सारी घटनाओं के लिए आरक्षण ही ज़िम्मेदार है। मेरा मानना है कि आरक्षण सिर्फ एक सहूलियत है अब जनता चाहे तो उसे सामाजिक समानता का साधन माने या चाहे तो उसकी आड़ में हिंसा करे।

दूसरी घटना-

पड़ोसी या दूसरे किसी भी मुल्क को लेकर मेरे अपने व्यक्तिगत विचार हैं, सभी के होते हैं। मैं देश और देशों की सीमाओं का विरोध करता हूं। मेरा भूगोल हिमालय के पार तिब्बत, चीन, मंगोलिया और साइबेरिया से गुज़रता हुआ अनंत तक जाता है। मुझे राजनीतिक नक्शों के बजाय प्राकृतिक मानचित्र ज़्यादा पसंद है, जिनमें जंगलों का हरापन और पहाड़ों का भूरा रंग देश की सीमाओं को लांघते हुए भरा जाता है। धरातल पर नदियों की नीली-काली लकीरें सरहदें लांघते हुए कई देशों से देशद्रोह करती हुईं बेखोफ गुज़र जाती हैं।

मुझे नहीं पता कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में किसी देश या व्यक्ति विशेष के सम्बन्ध में नारे लगाना देशद्रोह है या नहीं। शायद अभिव्यक्ति की स्वंत्रता में यह भी शामिल हो। पड़ोसी देश के ज़िन्दाबाद के नारे ‘गदर के नायक’ ने भी लगाए थे। उसे ऐसा करने में कोई आपत्ति नहीं थी।

हमें भी लगता है कि ‘हमारे’ सरबजीत को फांसी गलत दी गयी, वो तो एक निर्दोष व्यक्ति था। एक आम भारतीय था लेकिन पड़ोसी देश ने उसे संगीन अपराधी माना, एक जासूस माना। मुझे नहीं पता सच क्या है? मगर यह ज़रूर जानता हूं कि पड़ोसी देश में सरबजीत के सम्बन्ध में ज़िन्दाबाद के नारे लगाना ‘वहां’ का देशद्रोह होगा मगर हमारे यहां सरबजीत के लिए संवेदनाएं हैं। उनके परिवार के लिए सांत्वना है। इस तरफ हो तो शहीद और उस तरफ हो तो दुश्मन की मौत। तो आखिर देशों की सीमाओं ने ही लोगों को देशद्रोह या देशभक्त बनाया है। सीमाएं इंसानों से बड़ी हो गईं अब वो हमारा अस्तित्व तय करती हैं।

आज जब चारों तरफ राष्ट्रवाद की बहस चल रही है तो देश के युवा और जनता को यह ‘हवा’ ज़्यादा आकर्षित नहीं कर पा रही है। आज के इस दौर में राष्ट्रवाद सिर्फ भू-राजनीतिक अवधारणा बनकर रह गयी है। आज की दुनिया वैश्वीकरण और भूमंडलीकरण की है। वैश्वीकरण के इस दौर में खुली अर्थव्यवस्था खुद राज्य की अवधारणा को चुनौती देती है। लोग रोज़गार के लिए रोज़ देश बदलते हैं, खिलाड़ी दूसरे देशों के लिए खेलते हैं, युवाओं के अन्य देशों में जाकर बसने के सपने फल-फूल रहे हैं। ऐसे में किसी ‘एक देश’ के प्रति राष्ट्रवाद का मुद्दा फीका पड़ता नज़र आता है। शायद अब समय आ गया है जब हमें राष्ट्रवाद की ‘एक नयी व्यापक’ परिभाषा को अपना लेना चाहिए।

आज़ादी की लम्बी लड़ाई के सात दशक बाद भी आज देश का युवा देश में ही आज़ादी की मांग कर रहा है। वह विचारों की आज़ादी की बात कर रहा है। सत्ता से सवाल पूछने, असहमतियां जताने और अपनी बात कहने की आज़ादी। वो राजनीति में घुस जाने या सत्ता पर काबिज़ होने की बात नहीं करता वो बात करता है विचारधारा की।

विचारधारा जो देश के किसान से लेकर जवान तक को जोड़ती है, जो कारखाना के कर्मचारी से लेकर एक डॉक्टर तक को जोड़ती है। एक विचारधारा जो हमारी जाति, धर्म और पार्टी से ऊपर हो। विचारधारा जो अनेकता में एकता वाले इस विविधतापूर्ण समाज को जोड़ने का काम करती हो।

उपरोक्त दोनों घटनाएं देश में एक साथ घट रही थीं। दोनों में ही अंतिम फैसला तो न्यायपालिका को करना है। आखिर न्यायपालिका घटनाओं को कानून के नज़रिए से देखती है, उसे देखना भी चाहिए मगर शायद एक फैसला हम भी कर सकते हैं, ‘आखिर देशद्रोही कौन हो सकता है?’ हम सभी भी तो अपने-अपने ढंग से इन घटनाओं को देखते और समझते हैं ही। हां हम भी न्याय कर सकते हैं। न्याय जिसमें सज़ा नहीं सीख होगी। मगर आवेग और क्रोध के साथ नहीं बल्कि संयम और समझ के साथ।

आज आरक्षण पाने के नाम पर हर जाति, दलित और पिछड़ी तो बन जाना चाहती है मगर क्या वह सैकड़ों वर्षों से चली आ रही सामाजिक असमानताओं के दंश की पीड़ा को भी झेलने को तैयार है? तकलीफदेह बात यह है कि यह तथाकथित जातियां अपना पिछड़ापन दिखाने के लिए ट्रेन रोकती हैं, दुकानें जलाती हैं, सार्वजनिक और निजी संपत्तियों का नुकसान करती हैं, लोगों को भयभीत करती हैं और भी बहुत कुछ।

दूसरी तरफ यदि किसी विश्वविद्यालय में स्टूडेंट्स ने किसी व्यक्ति विशेष के समर्थन या विरोध में कुछ नारे लगा भी दिए तो क्या उनसे बातचीत नहीं की जा सकती? जो नारे लगाने का साहस रखते हैं वो बातचीत की हिम्मत भी दिखायेंगे। आज भारत में कई भारत पल रहे हैं। हम क्या पहने के बाद, क्या खाएं, क्या लिखे, क्या बोले और फिर अब क्या सोचे भी जब कोई और तय करने लगे तो समझो आप देश में आज़ाद नहीं हैं।

अब आपको ही यह तय करना होगा कि हमारे अंतर्मन का भूगोल देश की सीमाओं से जकड़ा है या ब्रह्मांड में अनंत तक फैला है। आलेख में मेरे अपने विचार हैं, आप इन विचारों से सहमति, असहमति या घोर असहमति भी रख सकते हैं।

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