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कविता: जो सो रहे जगाने को, लानी होगी नव चेतना

युवाओं की प्रतीकात्मक तस्वीर

युवाओं की प्रतीकात्मक तस्वीर

लक्ष्य समुचित भेदना, घावों को फिर कुरेदना

जो सो रहे जगाने को, लानी होगी नव चेतना।

 

आतंक के ठिकानों को, पापों के हुक्मरानों को

बनना पड़ेगा अग्नि हमें, कंटक सभी जलाने को,

निज राष्ट्र की सुरक्षा में, अब लगाए कोई सेंध ना

जो सो रहे जगाने को, लानी होगी नव चेतना।

 

जिनको सत्ता हम सौंपते, हैं वही ज़हर घोलते

गृहयुद्ध प्रबल हुआ है, वो बोल हैं ऐसे बोलते,

लगा दो प्रतिबंध उनपर, दिखाओ मत संवेदना

जो सो रहे जगाने को, लानी होगी नव चेतना।

 

गरीबी अब तक जमी है, जातियां भी खूब रमी हैं

नींव को कमज़ोर करती, ढांचे की हर एक कमी हैं,

जड़ से मिटानी है हमें, राष्ट्र से इनको है खेदना

जो सो रहे जगाने को, लानी होगी नव चेतना।

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