नदी अब नहीं बहेगी उस तट पर
जहां तुम आस्था के दीप में
उसके अस्तित्व को जला रहे हो।
नदी अब नहीं बहेगी उस तट पर
जहां तुम सभ्यता की प्यास मिटाते-मिटाते
उसके वजूद को मिटा रहे हो।
नदी अब नहीं बहेगी उस तट पर
जहां तुम अपने पुरखों की अस्थियों के साथ
शहर के नालियों से विषैले मैलों को
जल में प्रवाहित कर मोक्ष प्राप्त करना चाह रहे हो।
नदी अब नहीं बहेगी उस तट पर
जहां तुम भक्ति की आड़ में पल-पल
माँ कहकर उसकी निर्मम हत्या कर रहे हो।
नदी अब नहीं बहेगी उस तट पर
नदी अब लड़ेगी स्वाभिमान का युद्ध तुम्हारे विरुद्ध
क्योंकि उसने बगावत करना सीख लिया है
वो अब नहीं सहेगी तुम्हारे सदियों का शोषण।
वो अब नहीं पिघलेगी हिम से तुम्हारी व्यथा को अपने लहरो के आंचल में समेटने
क्योंकि तुमने उसका मोल ना जाना
धरती पर बहते अमृत को तुमने कब है पहचाना।
उसके श्वेत निर्मल धाराओं को तुमने अपने स्वार्थ की गठरी में बांधकर किया है स्याह मलिन
वो सूख कर मरुस्थल बन जाएगी
परन्तु नदी अब नहीं बहेगी उस तट पर।