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कविता: कलयुग और नारी

महिला की प्रतीकात्मक तस्वीर

महिला की प्रतीकात्मक तस्वीर

कैसा कलयुग जहां नारी हर रोज़ आबरू खोती है

इंसानियत इंसानों की अब आंख मूंदकर सोती हैं।

 

अरमान दिल में थे बहुत मगर सब अधूरे रह गए

जो सपने आंखों में संजोए, आंसूओं में बह गए।

घर, बाहर, बचपन, जवानी महफूज़ नहीं कहीं भी

देख बेटी की लाचारी अब माँ भारती भी रोती हैं।

 

कोख से बचकर आई जग में, हवस से बच ना पाई

प्यार छलावा था उनका यह बात वो समझ ना पाई।

कुछ अपनों ने छला तो कुछ ने अपना बनकर घात किया

कुछ दुष्टों के कुकर्मों से मानवता लज्जित होती हैं।।

 

जात-धर्म कुछ नहीं उनकी ना वो किसी की देखते हैं

कुछ तो निर्लज्ज इतने भी सब खड़े-खड़े बस देखते हैं।

मत भूलो नारी जगजननी नारी से जग का है प्रसार

नारी हैं देवी समतुल्य वो ही बीज मनु का बोती हैं।।

 

सरहद पर लड़कर मरकर, दिखलाओ अपनी मर्दानी

क्या सोच के कर दी तबाह उन कलियों की ज़िन्दगानी।

सब बेशर्म हुए, अब शर्म गवा दी हैं आंखों की

घूम रहे बेफिक्र दरिंदे, कमज़ोर न्याय की पोथी है।।

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